ग्रामीण जीवन 
Gramin Jeevan

इन्दा के विख्यात कवि दिनकरजी ने लिखा है, "चलो कवि ! वनफूलों की ओर।' मैं कहना चाहता हूँ, 'चलो कवि, अपने गाँवों की ओर।' नगरों में जिधर देखिए, उधर ही गर्द-गुबार है, चीख और चीत्कार है, भीड़ और दौड़ है; किन्तु गांग में आकर देखें, शान्ति और सौरभ का साम्राज्य पग-पग पर लुट रहा है। पन्तजी ने अपनी 'ग्राम-श्री' कविता में लिखा है-

मरकत डिब्बे-सा खुला ग्राम 

जिसपर नीलम नभ आच्छादन, 

निरुपम हिमान्त में स्निग्ध शान्त 

निज शोभा से हरता जन-मन ।

किसी महानगर में चले जायँ, आकाश को छूनेवाली अट्टालिकाएँ शैतान की तरह डरावनी-भयावनी मालूम पड़ती हैं। शेषनाग ने करवट बदली, भूकम्प का हल्का झटका लगा और हजारों की जान पर आफत आयी। किन्तु गाँवों मे आकर देखें-छोटे-छोटे फूस और मिट्टी के घर कितने निरापद हैं। लगता है, बालक विधाता ने अपनी क्रीड़ा के लिए मनपसन्द घरौंदे बनाये हैं। मानव के पृथ्वीपुत्र कहलाने की सार्थकता कहाँ, यदि वह पृथ्वी की गोद से चिपका न रहे? आज मानव भले ही गगनचारी हो जाय, वह गगननिवासी भले ही हो जाय; किन्तु मूल से सम्बन्ध विच्छेद कर उसकी दशा अमरलत्ती की तरह हो जाएगी, अपनी गंगोत्तरी से विच्युत होकर उसकी जीवनधारा ही सूख जाएगी, इसमें सन्देह नहीं।

गाँवों में किसी ओर निकल जायें, लगेगा प्रकृतिरानी सोलहों श्रृंगार कर निकल पड़ी है। खेतों में दूर-दूर तक उसका रेशमी दुपट्टा बिखरा हुआ है जिसमें सूर्य की सुनहली किरणें गोटे-सी जड़ दी गयी हैं। सरसों के सुहावने पीले फूल उसमें तारे-से जड़े हैं, जौ-गेहूँ की बालियाँ तथा मटर की फलियाँ किसी कशीदागर की कशीदागरी-सी मालूम पड़ रही हैं। हरसिंगार और रजनीगन्धा के फूल उसकी मुस्कुराहट-से झर रहे हैं, केवड़े की सुगन्ध उसके केशपाश से उड़नेवाली भीनी-भीनी गन्ध है, ओसकण इठलाकर चलने के कारण उसके नाजुक बदन पर पसीने की नन्हीं-नन्हीं बूंदों की तरह उभर आये हैं। उसका अकृत्रिम सौन्दर्य देखकर मन की मैल धुल जाती है और मन का कोकिल गा उठता है-

आज मन पावन हुआ है, 

जेठ में सावन हुआ है।

उसकी दीनता पर तरस खाने की आवश्यकता नहीं। हाँ, इतना जरूरी है कि नयी दुनिया की नयी रोशनी वहाँ भी थोड़ी अवश्य आये। किसी तपस्विनी के बाल संवारकर 'मेक-अप' कर उसे आधुनिका भले बना डालें, किसी योगी या संन्यासी को कोट-पैट से लैस कर भले ही 'अप-टु-डेट' बना दें, किन्तु इससे उसकी आत्मा का हनन अवश्य हो जाएगा। सर्वत्र परिवर्तन के उन्मादियों को भले ही गाँव की अनलंकृत काया अग्राह लगे, किन्तु मुझे जो वल्कलवसना तपोवनवासिनी शकुन्तला भायी, वह दुष्यन्त ' राजप्रासाद-निवासिनी ऐश्वर्यशालिनी शकुन्तला कभी नहीं।