मेरा मनपसन्द फूल गुलाब
Mera Manpasand Phool Gulaab
फूलों में गौरवोन्नत मुझ गुलाब को कौन नहीं जानता ! मैं ही फूलों का सम्राट् हूँ।
में फूलों का सम्राटू है, इसीलिए अन्य सम्राटों के समान इतिहास में और लोगों में मेरे बारे में बहुत गलतफहमियाँ हैं। एक गलतफहमी यह है कि भारत की जमीन पर सबसे पहले नूरजहाँ मुझे फारस से लायी। नूरजहाँ के बहुत पहले, भारत में मेरा नाम पाटल था, पाटलिका था और मेरी खेती पटना जिले में होती थी, जिस कारण इस इलाके का नाम पाटलिपुत्र यानी 'गुलाब की सन्तान' था। यह सब मैं जानता है। मगर, ऐतिहासिकों या लोगों को यह बात कौन समझाये?
मुझमे जो लाल रंग है, वह प्रेम का रंग है; मुझमें जो गन्ध है, वह मेरे सौहार्द की गंध है। संसार में अनेक व्यक्ति आपको ऐसे मिलेंगे, जिनमें सौन्दर्य है, मपाकर्षण है, पर उनमे शील नहीं है, सदाचार नहीं है, मानवता का लेश भी नहीं है। मनुष्यों का भी अभाव नहीं है, जिनमें मानवता के दिव्य गुण भरे पड़े हैं, पर ये रूपवान नहीं है। यदि आप उनके गुणों को नहीं जानते हैं, तो आकृति देखकर आपटर लेंगे, नाक भी सिकोड़ लेंगे। रूप और गुण का दुर्लभ समन्वय मानव में चाहे मिले या न मिले, पर मुझमे-केवल मुझमें आपको अवश्य मिलेगा।
आपने मेरी ओर कभी गौर से देखा है ? मैं काँटों से घिरा रहता हूँ-ऐसे काटे कि एक बार चुभ जाये, तो आपकी मखमलो उँगलियाँ कई दिनों तक कसकती रहे। किन्तु मैं काँटों का ताज पहनकर उसी प्रकार मुस्कुराता हूँ, जिस प्रकार ईसा मसौर कॉटों का ताज पहनकर मुस्कुराये थे। वे काँटों का किरीट पहनकर सूली पर झुलका भी मानवता के प्रति सद्भावना की सुगन्धि बिखेरते रहे। मैंने भी काँटों का मुकट पहनकर सुगन्धि-वितरण में कभी कृपणता नहीं की।
निष्ठर ग्रीष्म आता है। मेरे सभी सहयोगी कर्मचारी, सेवक मुरझाने लगते है-सूखने लगते हैं; किन्तु मैं अन्तिम सांस तक साहस बटोरकर संसार में गा बिखेरता रहता हूँ। मेरी आहों के साथ आह मिलानेवाला कोई नहीं होता-
'Tis the last rose of summer
Left blooming alone,
All her lovely companions
Are faded and gone.
No flower of her kindred
No rose-bud is nigh,
To reflect back her bushes,
Or give sigh for sigh.
अर्थात,
यह निदाघ की अन्तिम विकसित पाटलिका एकान्त
गयी है छूट
इसकी कुल सुन्दर सहेलियाँ गयीं मूर्षिछता क्लान्त
संग से टूट
इसकी जाति की न कोई है कली या कुसुम पास
जोकि कर चाह
इसकी लज्जा पर लज्जा कुछ करे, भरे सोच्छ्वास
आह पर आह!--थॉमस मूर : दि लास्ट रोज ऑफ समर
मेरे बारे में कवियों ने न जाने कितने विचार पाल रखे हैं, कितनी कल्पनाएँ कर रखी हैं। रॉबर्ट बर्न्स अपने प्रेयसी को मेरे-जैसा मानता है
O my love's like a red, red rose
That newly sprung in June.
कोई मेरी लाली में अपनी प्रियतमा के कपोलों पर लज्जा के कारण आ गई अरुणाई की परछाई देखता है। एक कवि ने तो मेरे पूर्वजन्म का पता लगाकर कहा है-
अपने बलिदानों से जग में
उन पगलों के शोणित की
लाली गुलाब में छायी है। -दिनकर
पता नहीं, मैंने हिन्दी के विख्यात कवि निरालाजी का क्या बिगाड़ा कि उन्हनि एक गवार कुकुरमुत्ते से मुझे गालियाँ दिलवायीं। यदि आप उनके शब्दों को सुनेंगे, तो आप भी आक्रोश से भर जायेंगे-
अबे, सुन बे, गुलाब,
भूल मत गर पायी खुशबू, रंगो-आव,
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट
डाल पर इतरा रहा कैपिटलिस्ट
कितनों को तूने बनाया है गुलाम
माली को रक्खा, सहाया जाड़ा-घाम
हाथ जिसके तू लगा,
पैर सर पर रख व, पीछे भगा
जानिब औरत की, मैदाने-जंग छोड़,
तबेले को टट्ट, जैसे तंग तोड़ा
शाहों, राजाओं, अमीरों का रहा प्यारा;
इसलिए साधारणों से रहा न्यारा;
वरन क्या हस्ती है तेरी, पोच तू,
काँटों से ही है भरा यह सोच तू।
बेचारे कवि पर मुझे बड़ा तरस आता है। मुझसे बढ़कर किसी को कुकुरमुत्ता लगे, किसी को गेहूँ लगे, तो मैं क्या कर सकता हूँ! मैं सचमुच शाहों, राजाओं, अमीरों का प्यारा रहा- इसमें सन्देह नहीं; लेकिन उनका, जो दौलत से शाह, राजा या अमीर नहीं, वरन् दिल से शाह, राजा या अमीर हैं। क्या संसार में सबसे बड़े कुबेर पं जवाहरलाल नेहरू या डॉ. जाकिर हुसैन ही थे, जो मुझपर सौ-सौ जान से फिदा थे-अपने हृदय से सदा मुझे चिपकाये रहे? जो व्यक्ति यह जानता है कि मैं कंटकों का हार पहनकर भी, प्रकृति की निष्ठुरता का भूभंग सहकर भी प्रीति की लाली तथा सद्भावना की सुरभि निर्व्याज रूप से लुटाता रहता हूँ, वह तो मेरा भक्त होगा ही-
यहि आसा अटक्यो रह्यो, अलि गुलाब के मूल।
अइहैं बहुरि बसंत ऋतु, इन डारिन वे फूल॥ -बिहारी
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