मेरा मनपसन्द फल आम 
Mera Manpasand Phal Aam

में आम हूँ। फलों का राजा आम | यदि वसन्त ऋतुराज है, तो मैं रसराज। जिसने एक बार मेरे रस का आस्वाद लिया, वह भला क्या अन्य फलों की ओर नजर डालेगा ? अनार भले ही दाँतों की उपमा में काम आये, नारंगी भले ही उपमा के लिए उपयुक्त हो, अंगूर भले ही ओठों की समता करे, सेब भले ही की की सुन्दरता प्राप्त करे, किन्तु मेरी बात निराली है, बिलकुल अनूठी। जितना की मेरा तन है, उतना ही विविध रसों से लबालब मेरा मन भी। तन और मनी एकतानता का सर्वोत्तुम निदर्शन मैं हूँ।

हाँ, मैं सचमुच राजा हूँ। अपने देश की प्रतिष्ठा मैंने विदेशों में सातवें आसमान पर पहुँचा दी है। चाहे रूस में श्री गोर्वाचोव पार्टी दे रहे हों, चाहे ब्रिटेन में श्रीमती थैचर रात्रि-भोज का आयोजन कर रही हों, चाहे अमेरिका में श्री रीगन का डिनर-टेबल सज रहा हो, यदि मैं 'फ्रिज' से निकलकर बाहर न आऊँ तो सारा मजा किरकिरा सब गड गोबर । कविगुरू रवीन्द्रनाथ मेरे सबसे सच्चे प्रेमी थे। जब तक मेरा मौसम रहता, वे मेरे बिना भोजन तक नहीं करते थे। मेरी सुकुल जाति को तो उन्होंने 'दादा' कहकर प्रणाम किया था, क्योंकि उनकी बड़ी दाढ़ी से भी बड़ी दाढ़ी सुकुल के पेट में थी। इस दीन देश को मैने कितनी विदेशी मुद्रा दी है, यदि इसका पता आपको लग जाय, तो आप मुझे हारों से लाद दें। हाँ, भारत सरकार की कृतज्ञता मैं भूल नहीं सकता कि इसने अपने पचास पैसे के डाक-टिकट पर पल्लवसहित मेरे एक चौद को स्थान दिया है। यह मेरा मूल्य भी है। क्योंकि जबसे यह देश है, तभी से धर्म और साहित्य में मैं सभी पेड़ों का राजा हूँ। मेरे पल्लव और बन्दनवार के बिना जहाँ कोई पूजा नहीं होती, वहीं मेरी मंजरियों के बिना वियोग-वर्णन का रंग नहीं जमता। मैं संसार की बात नहीं कहता, एक अपने देश भारतवर्ष में ही मेरी लगभग एक हजार किस्में हैं—जातियाँ हैं। मेरी कुछ प्रमुख जातियों के नाम हैं-अलफान्सो, फर्गाण्डीन, दशहरी, फजली, लैंगड़ा, मालदह, सफेदा, सीपिया, रसुनताबा, तोतापरी, बैंगनपिल्ली, मुन्दप्पा इत्यादि। सबका अलग-अलग रूप, अलग-अलग रंग, अलग-अलग स्वाद! किन्तु, हाँ, जिसने एक बार बम्बई के अलफान्सो, बनारस के लँगड़ा तथा दीघा (पटना) के मालदह का मजा ले लिया, वह मेरी बिरादरी के अन्यों के प्रति थोड़ा उदासीन तो अवश्य हो जाएगा।

मेरा अतीत कितना भव्य है, शायद आप नहीं जानते। वसंत की रानी कोयल मुझपर सदा अपने को न्योछावर करती रही है। प्रेमदेव कामदेव तो अपने पंचशर में मेरी मंजरी को एक शर बनाकर प्रेमी-हृदयों को संविद्ध करते रहे हैं। प्राचीन संस्कृत-कवियों ने मुझपर अनेकानेक श्लोक. रचे, अमीर खुसरो ने मुझपर कविताएं लिखीं। भरहुत की मूर्तियों में मैं आलेखित हुआ, अजन्ता की भित्तियों पर चित्रित। यूरोपनिवासियों में सबसे पहली बार सम्भवतः विश्वविजेता सिकन्दर ने मेरा आखाद लिया था और वे मेरे दासानुदास हो गये थे। ईरान के शाह को जब उनके एक दरबारी ने बतलाया था कि भारतवर्ष में एक अद्भुत पदार्थ होता है-आम तो उन्होंने पूछा था कि उसका स्वाद कैसा होता है। दरबारी ने बतलाया था कि श्वेत दाढ़ी में मधु लगाकर चाटने से जो स्वाद मिलेगा, वही उस अद्भुत पदार्थ में मिलता है। ऐसा सुनकर वे मुझे पाने के लिए बेचैन हो उठे थे। सातवीं शताब्दी में हुएनसाग जब भारत से चीन लौटे, तो उन्होंने चीनियों से मेरा परिचय कराया। पन्द्रहवीं शताब्दा में पुर्तगालियों के साथ मैंने अफ्रीका और दक्षिणी अमेरिका का पर्यटन किया। जा विदेशी मुझे जानता गया, वह अन्य विदेशियों के साथ मेरा सम्पर्क स्थापित कराता गया और आज यह हाल है कि मैं संसारभर में फैल गया है। वैज्ञानिक बंधू तो मुझमें शर्करा, लवण, खनिज, विटामिन ए-डी, कैरोटिन तथा साइट्रिक एसिड प्रचुर मात्रा में पाकर ही मेरे पूरे प्रशंसक बन गये है।

भक्तों ने विष्णु के सहस्र नाम बतलाये, दुर्गा के सात सौ। मेरे भक्तों ने मेरा उपभोग-भर किया, ज्यादा नाम नहीं दिया; किन्तु फिर भी मेरे दो मुख्य नाम है-आम्र और रसाल। संस्कृत के आप का सुधरा रूप आम है। आम्र कहने में जिहा को घोड़ा काट होता था, जनता ने अपने 'महाराज' का नाम-उच्चारण सरल कर दिया। 'आम' इसलिए कि मैं गतिशील हूँ, जीवन में गति देता हूँ। वस्तुतः गति का दूसरा नाम जीवन है। 'रसाल' इसलिए कि मैं रस से विभूषित हूँ और आप जानते हैं-रस ही जीवन है, प्राण है। इतना ही नहीं, उपनिषद् यहाँ तक कहती है कि रस साक्षात परमात्मा है जिसे पाकर और कुछ पाने की आकांक्षा-आवश्यकता नहीं रह जाती। तो क्या मैं भी कह सकता हूँ कि मुझे पाकर और कुछ पाने की इच्छा नहीं रह जाएगी?

भाई ! मैं कोई डींगबाज नहीं। अपनी विशेषता का बखान कोई अपराध नहीं है। ऐसा कौन है जिसकी सारी कामनाएं पूरी हो गयीं, जिसके जीवन में कोई लालसा रही ही नहीं। कभी प्रकृति बरछे की तरह ओले बरसाकर मुझे दागदार कर जाती है, किन्तु मुझे उससे भी उतना कष्ट नहीं होता जितना इस बात से कि गीता के दसवें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से केवल यही कहा कि मैं घोड़ों में उच्चैःश्रवा हूँ, हाथियों में ऐरावत हूँ, गायों में कामधेनु हूँ, वृक्षों में वट हूँ इत्यादिः उन्होंने यह नहीं कहा कि मैं फलों में आम हूँ। भगवान ने मुझे छोड़ दिया। मेरी उपेक्षा की। इसकी पीड़ा मुझे जितना सताती है, मैं ही जानता हूँ।

खैर, भक्त निराश नहीं होते। मैं भी तपस्या कर रहा है। इस तपस्या में मैं समिधा तक बनकर आज तक के सारे हवनों-यज्ञों-में जल रहा हूँ-तप रहा हूँ। मुझे विश्वास है कि अब जब भगवान अवतार लेंगे, अपने अर्जुन के समक्ष मेरी महत्ता बतलाने में मेरा उल्लेख अवश्य करेंगे।