मेरा प्रिय कवि-तुलसीदास 
Mera Priya Kavi-Tulsidas


जिसने अपने बारे में कहा-'कवि न होउँ नहिं चतुर कहाऊँ, मति अनुरूप राम गुन गाऊँ' वही मेरे लिए कवियों का ही कवि यहीं, वरन महाकवियों का महाकवि है। वही महाकवि मेरा सबसे प्रिय कवि है, जिनका नाम है तलसीदल की तरह अतिपावन गोस्वामी तुलसीदास।

गोस्वामीजी का बाल्यकाल मखमली गहे पर नहीं बीता। उन्हें उपेक्षाओं-प्रताड़नाओं का गरल-चूट बार-बार पीना पड़ा था, किन्तु वे विषपायी नीलकंठ मानवता के कल्याण के लिए उपकरण जुटाते रहे। भ्रमर को कैंटीली डालों पर चकर देने में न मालूम कितने कष्ट झेलने पड़ते हैं, किन्तु वह भयभीत-पराजित होकर अपनी वृत्ति से पराङ्मुख नहीं होता और तभी तो हमारे समक्ष अपना मधुकोष लुटा जाता है। गोस्वामी तुलसीदास ने स्वयं तो भ्रमर की भाँति काँटों की चुभन सही, किन्तु हमारे लिए काव्य का अक्षय मधुकोष उपहारस्वरूप अर्पित किया।

'देश-काल के शर से बिंधकर' जब ये 'अशेष छविधर' कवि जागे, तो इन्होंने सभी प्रचलित काव्य-विधाओं में साहित्य-सर्जन किया। इनके प्रामाणिक ग्रंथों की संख्या बारह है। यदि 'रामचरितमानस' महाकाव्य है तो 'विनयपत्रिका', 'गीतावली' तथा 'श्रीकृष्ण-गीतावली' गीतिकाव्य हैं; 'पार्वतीमंगल' तथा 'जानकीमंगल' खंडकाव्य हैं तो 'कवितावली', 'दोहावली', 'रामाज्ञाप्रश्न', 'बरवैरामायण', 'वैराग्यसंदीपनी' तथा 'रामललानहळू मुक्तककाव्य। सारी शैलियों को राममय करने की दृष्टि से ये रचनाएँ महत्त्वपूर्ण हैं, फिर भी 'रामचरितमानस' और 'विनयपत्रिका' तो सबसे महत्त्वपूर्ण है।

'रामचरितमानस' ऐसा मृत्यंजय ग्रंथ है कि इसकी चर्चा संसार की श्रेष्ठ भाषाओं के विचारकों ने की है। संसारप्रसिद्ध ग्रंथों की दो कोटियाँ हैं। एक में 'वेद', 'बाइबिल', 'कुरान' जैसे धार्मिक ग्रंथ हैं और दूसरे में ग्रीक महाकवि होमर की 'इलियड' और 'ओडेसी', इटालियन महाकवि दाँते की 'डिवाइन कॉमेडिया', मिल्टन की 'पैराडाइज लॉस्ट', शेक्सपियर की 'किंग लियर' और 'मैकबेथ', कालिदास की 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' तथा रवीन्द्रनाथ ठाकुर की 'गीतांजलि' जैसी रचनाएँ आती हैं। किन्तु 'रामचरितमानस' में इन दोनों कोटियों का आश्चर्यजनक समन्वय हुआ है। यही कारण है कि यदि 'मानस' आस्तिकों का मनोमुकुट है, तो दूसरी ओर साहित्यकारों का कंठहार भी। यह इतने गुणों की खान है कि उनका बखान सम्भव नहीं । इसके एक-दो गुणों का आकलन ही यहाँ अलम् होगा।

भारतीय संस्कृति के दो प्रबल स्तम्भ हैं-सत्य और त्याग। इन्हीं दो के आधार पर महान-से-महान बना जा सकता है। तुलसी के नायक भगवान् राम तथा उनके परिवार के सदस्यों ने सत्य और त्याग का पालन जिस दृढ़ता से किया है वैसा सत्य और त्याग का पालन अन्यत्र दुर्लभ है।

राजा दशरथ ने कैकेयी को दो वरदान दिये थे। राजा ने कैकेयी के प्रति अपने वचन-निर्वाह के लिए अपने प्रिय पुत्र राम को चौदह वर्ष का वनवास दिया तथा अपने पुत्र-प्रेम को प्रमाणित करने के लिए अपना शरीर-त्याग किया

रघुकुल रीति सदा चलि आई।

प्राण जाय बरु वचन न जाई॥ 

राजा दशरथ की आँखों के तारे सकमार राम ने चक्रवर्ती सम्राट की सारी सम्पदाओं को ठकराकर वन के लिए पैदल प्रस्थान किया। जिन जनकतनया सीता ने कभी कंटकाकीर्ण कठोर मार्ग पर गमन नहीं किया था, वे ही राम के साथ कष्ट झेलती रहीं। पुर से आगे दो कदम रखते ही उनके मधुराधर सूखने लगे थे, भाल पर जल की कणिकाएँ चमकने लगी थीं। राम के लिए ये कष्ट साधारण थे। मार्ग के कंटकों को पाँवों तले रौंदते, गिरि-निर्झरों को लाँघते, पंचवटी में जब राम रहने लगे, तो रावण ने सीता का हरण किया। राम सीता के विरह में बड़े ही उद्विग्न हुए। फिर भी उन्होंने हार न मानी। जड़ उदधि ने लंका का रास्ता रोक दिया, फिर भी राम ने नल-नील की सहायता से उसपर पुल बाँध लिया। रावण से उनकी घमासान लड़ाई हुई। लक्ष्मण मूर्च्छित हुए, फिर भी विजयलक्ष्मी ने राम का वरण किया।

इसका कारण स्पष्ट है कि राम ने कभी सत्य और त्याग का पल्ला नहीं छोड़ा। रावण के पास पाशविक शक्ति थी, तो राम के पास आत्मिक शक्ति। रावण को रथी और राम को विरथ देखकर भक्त विभीषण का कोमल चित्त विचलित हो उठा था। विभीषण को सान्त्वना देने के लिए भगवान राम ने अपने जिस रथ का वर्णन किया है, उससे प्रेरणा लेकर हम अपने चरित्र-रथ का निर्माण कर सकते हैं।

आज जिस ढंग से पारिवारिक व्यवस्था चरमराकर टूट रही है, वैसा ही गोस्वामीजी के युग मे भी शुरू हो गया था। जब तक परिवार सुगठित नहीं है, तब तक सुगठित समाज की आशा नहीं की जा सकती। एक परिवार में जब एक भाई दूसरे भाई के खून का प्यासा हो, तो समाज में प्रातृत्व रहे, इसकी कल्पना व्यर्थ है। अतः सामाजिक सम्बन्धों के समुचित निर्वाह के लिए 'रामचरितमानस' जितना हमारा पथप्रदर्शन करता है, उतना हिन्दी का कोई दूसरा ग्रंथ नहीं।

हम यदि लौकिक एवं पारलौकिक उन्नति के आकांक्षी हैं, तो तपस्वी होना पड़ेगा। चाहे ब्रह्मा हों या शिव-सभी ने तपोबल से ही आश्चर्यजनक कार्य किये है। गोस्वामीजी लिखते हैं-

जनि आचरजु करहु मन माहीं। सुत तप तें दुर्लभ कछु नाहीं ।। 

तपबल ते जग सृजइ विधाता । तपबल विष्णु भए परित्राता ।। 

तपबल संभु करहिं संघारा । तपते अगम न कछु संसारा ।। 

भएउ नपत्ति सुनि अति अनुरागा। कथा पुरातन कहै सो लागा।। 

डॉ. जॉर्ज ग्रियर्सन ने 'रामचरितमानस' को उत्तरभारत की 'बाइबिल' माना है। वस्तुतः, भारतीय जनता तुलसीदास की रचना को 'बाइबिल' से भी अधिक आदर देती है।

गोस्वामी तुलसीदास की दूसरी महत्त्वपूर्ण कृति है, विनयपत्रिका'। 'विनयपत्रिका' अपने ढंग की अनोखी पुस्तक है। प्रेमी-प्रेमिका के बीच पत्र-व्यवहार भले ही साहित्य में वर्णित हुआ हो, किन्तु एक भक्त का भगवान के पास पत्र लिखना बिलकुल नयी बात है, जो इस 'विनयपत्रिका' में देखी जा सकती है। 279 पदों की इस पुस्तक में भक्तिरस की सुर-सरिता उमड़ चली है। गोस्वामाजी ने इसमें अपने दैन्य और कलुष का कच्चा चिट्ठा उपस्थित करते हुए 'कलि की कुचालि' तथा उसके दुराचारों का विवरण भी प्रस्तुत किया है। इसके बारे में श्री रामनरेश त्रिपाठी का कहना है, "तुलसी को यह पत्रिका लिखने में जैसी सफलता मिली है, उस अनुपात में वह उनके और किसी ग्रंथ में नहीं है। 'मानस' में, खासकर अयोध्याकांड में, उनकी कवित्व-शक्ति सावन-भादो की नदी की भाँति उमड़ी हुई दिखाई पड़ती है। पर, अरण्य, किष्किन्धा, सुन्दर और लंका कांड में वह घटते-घटते जेठ-बैसाख की नदी की तरह छिछली हो गयी है; कहीं-कहीं उसमें गड्ढे हैं, जिनमें कुछ अधिक जल जरूर जमा मिलता है। पर, 'विनयपत्रिका' में आदि से अन्त तक कवि की रस-धारा एक-सी प्रवाहित है। उसमें प्रचुर ज्ञान, गम्भीर अनुभव, भाषा और भाव पर कवि के अबाध अधिकार का रोचक इतिहास कमल की तरह सर्वत्र विकसित मिलता है।"

उनकी अन्य पुस्तकों का भी चिरस्थायी महत्त्व है। उन्होंने अपनी प्रतिभा का पारस-परस जिसे प्रदान किया वह स्वर्ण बन गया- मूल्यवान एवं भास्वर । 'छ दिया जिसे वह स्वर्ण हुआ, छू गयी रात मधुप्रात हुई'-पंक्ति उन्हीं पर चरितार्थ है।

गोस्वामीजी सन्देशों, आदर्शों एवं उदात्त कल्पनाओं के कवि हैं। उन्होंने इनकी अभिव्यक्ति के लिए जनभाषा को माध्यम के रूप में लिया, जो तब तक पूर्णतः उपेक्षित थी। हिन्दी भाषा को अपनाकर उन्होंने इसकी सामर्थ्य का द्वार खोल दिया। इसीलिए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का यह कथन उचित ही मालूम पड़ता है, "यह एक कवि' ही हिन्दी को एक प्रौढ़ साहित्यिक भाषा सिद्ध करने के लिए काफी है।"

अतः भारतीय जनता का यह प्रतिनिधि कवि, जिसने भारतीय संस्कृति के चिन्मय आकाशदीप को प्रज्वलित कर अनुकरणीय जीवन-सरणि का निर्माण किया, हमारे लिए वाल्मीकि, व्यास, कालिदास, भवभूति इत्यादि से भी अधिक प्रिय है, ऐसा हम निःसंकोच कह सकते हैं। धन्य हो महाकवि ! तुम्हारे बारे में महाकवि हरिऔध ने ठीक ही कहा है-

कविता करके तुलसी न लसे। 

कविता लसी पा तुलसी की कला ।।