मेरी प्रिय पुस्तक-रामचरितमानस
Meri Priya Pustak-Ramcharitmanas
अब तक मैंने जिन थोड़ी-सी पुस्तकों का आद्यन्त पारायण किया है सनम कान्ति का 'शकुन्तला', महात्मा गांधी की आत्मकथा, 'गीता', शेक्सपियर का हैमलट तथा तुलसीदास का 'रामचरितमानस' विशेष रूप से उल्लेखनीय है। ये सभी मुझे अच्छी लगी; किन्तु 'रामचरितमानस' जिस प्रकार मेरे मन-प्राणां पर छा गया, अन्य कोई नहीं।
महात्मा गाँधी ने अपने जीवन पर सर्वाधिक प्रभाव डालनेवाली जिन पुस्तकों का उल्लेख | किया है उनमें उन्होंने गोस्वामी तुलसीदास के 'रामचरितमानस' को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। पढ़ने के पश्चात् ऐसा लगा कि 'रामचरितमानस' जीवन-निर्माणक तत्त्वों से परिपूर्ण है।
रामचरितमानस' की सर्वश्रेष्ठता का स्वीकरण संसार के बड़े-बड़े लखकों ने किया जार्ज ग्रियर्सन का कहना है कि 'साई जनता में 'बाइबिल का जितना प्रचार है, उससे अधिक 'रामचरितमानस' का हिन्दू जनता में प्रचार और आदर है। यदि रिली के विशाल सागर मे केवल रामचरितमानस रह जाय, तो भी हिन्दी दरिद्र नहीं हो सकती।
'रामचरितमानस' का आदर दीन-दलितों के पर्णकुटीरों से लेकर महाराजाओं राजप्रासादों तक समान रूप से है। यदि एक ओर निरक्षर-भट्टाचार्य भैस चगते ही इसको चौपाइयाँ गुनगुनाते हैं, तो दूसरी ओर बड़े-बड़े पंडित इसकी चौपाइयाँ मंत्र की तरह जपते हैं।
'रामचरितमानस' यदि एक ओर वैदिक ऋचाओं की तरह ईश्वरीय काव्य है, तो दूसरी ओर गीता की भांति धर्मोपदेश। यदि एक ओर यह 'मनुस्मृति' है, तो दूसरी ओर उत्तमोत्तुम काव्य का निदर्शन। संसार में 'बाइबिल', 'कुरान', 'ऐज यू लाइक इट', 'गीता' और 'मेघदूत' जैसे अनेक धर्मग्रंथ तथा काव्यग्रंथ अलग-अलग मिल जा सकते हैं; किन्तु जहाँ 'गीता और मेघदूत', 'बाइबिल' और 'ऐज यू लाइक इट' एक सूत्र में गुंथे हुए हों-इसका एकमात्र उदाहरण है 'रामचरितमानस'।
'रामचरितमानस' 'हरि अनन्त हरिकथा अनन्ता' की भाँति अनन्त गुणोंवाला है। यह हमारे हिन्दूसमाज की आधारशिला है और हमारी परमोज्ज्वल संस्कृति का तपःपूत आकाशदीप है। श्रीराम-जैसे पुत्र, भरत और लक्ष्मण-जैसे भाई, सीता-जैसी पनी, कौशल्या-जैसी माता, सुग्रीव-जैसे मित्र तथा हनुमान जैसे सेवक भारत की गौरवदीप्त परंपरा के ध्रुवतारक है। यदि इस दिशा में हम अपने चरित्र का गठन कर पाये, तो सारे संसार में मनुष्यता के उत्थान की नवीन आशा बैंध सकती है और डोस्ट्यावस्को के कथन मनुष्य बर्बर पशुओं से भी अधिक बर्बर है" से व्याप्त निराशा का अन्धकार मिट सकता है।
'रामचरितमानस' एकांगी मत की कट्टरता में विश्वास नहीं करता, वरन् वह तो समन्वय की समतल भूमि पर अवस्थित हैं। इसमें चार घाट है। इसकी कथा के चार वक्ता हैं-(1) शिव, (2) काकभुशुडि, (3) याज्ञवल्क्य और (4) तुलसी स्वयं। इसके चार श्रोता है-(1) पार्वती, (2) गरूड़, (3) भारद्वाज तथा (4) सुजन। ये चारों देव, पक्षी, ऋषि, मनुष्य-चार श्रेणियों के प्रतिनिधि है। रामचरित तथा 'रामचरितमानस' की विशेषता है कि इसके पात्र पशु-पक्षी से देवता तक हैं। इसका आधारफलक इतना विस्तीर्ण है कि यह अपने में चराचर को संपटित कर लेता है। इतना ही नहीं, इन चारों घाटों के माध्यम से दर्शन और भक्ति के चार पक्ष उद्घाटित हुए हैं। इनका संयोजन मानस की रूपकात्मकता को सार्थक करता है। प्रथम घाट में विशिष्टाद्वैत है जो ज्ञानपरक कहा जा सकता है द्वितीय में द्वैताद्वैत है जो उपासनापरक कहा जा सकता है, तृतीय में शुद्धाद्वैत है जो कर्मपरक कहा जा सकता है और चतुर्थ में अद्वैत है जो शिवपरक कहा जा सकता है।
मानस' काव्य और दर्शन का सेतुबन्ध है-अनुभूति एवं चिन्तन का संगमस्थल है। काव्यात्मकता के लिए पुष्पवाटिका-प्रसंग की ये पंक्तियाँ देखें-
कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि । कहत लखन सन राम हृदय गुनि ।।
मानहूँ मदन दुंदुभी दीन्ही । मनमा विश्व विजय चहं कीन्ही ।।
अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा । सिय मुख मसि भए नयन चकोरा ।।
भए विलोचन चार अचंचल । मनहुँ सकुचि निमि तजे दृगंचल ।।
चिन्तन से ओतप्रोत कुछ पंक्तियाँ भी देखें-
रामचरित चिन्तामनि चारू । संत सुमति तिय सुभग सिंगारु ।।
जग मंगल गुन ग्राम राम के। दानि मुकुति धन धरम धाम के ।।
सद्गुरु ग्यान विराग जोग के। विबुध बैद भव भीम रोग के।।
जननि जनक सिय राम प्रेम के। बीज सकल ब्रत धरम नेम के।।
वस्तुतः, 'रामचरितमानस' एक ऐसा दिव्य ग्रंथ है कि इसके प्रत्येक अक्षर को आत्मसात कर लेना चाहिए। यदि ऐसा करने में हम समर्थ हो सकें, तो केवल हमारा पथ ही प्रकाशित नहीं होगा, केवल प्रगति के कनकाभ शिखर ही हमारे पाँव नहीं चूमेंगे, वरन् हम भूले-भटके मानव को नवीन मार्ग भी दिखला सकेंगे।
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