निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय
Nindak Niyare Rakhiye, Angan Kuti Chavay
अपनी निदा किसे भली लगती है? मनुष्य स्वभाव से ही प्रशंसाप्रिय होता है। अतिशयोक्तियों के रंगीन गुब्बारे छूटते रहें, प्रशंसा की फुहारें पड़ती रहे, तो बड़ा अच्छा लगता है। ऐसे परिवेश में लगातार अनुभव होता है कि मनुष्य नाना गुणों की खान है, उसमें कहीं कोई दोष नहीं है। यह वास्तविकता से पलायन का एक उपक्रम है। जो मनुष्य अपनी त्रुटियों से परिचित नहीं रहता, अपनी दुर्बलताओं का साक्षात्कार नहीं करता, जीवन में सफलता नहीं प्राप्त कर सकता। चाटुकारों द्वारा बनाये गये प्रशंसाजाल में बंधे लोगों को ही कबीरदास ने यह सलाह दी है कि निन्दकों को अपने निकट रखें। अपने आँगन में ही कुटी बनाकर निन्दक को बसाने की सलाह कबीर ने दी है, क्योंकि निन्दक पानी और साबुन के बिना ही आचरण को निर्मल करता है। कबीर का मंतव्य यह भी है कि अपनी निन्दा सुनकर हम उद्विग्न न हों, वरन् आत्मान्वेषण द्वारा अपने दोषों का परिमार्जन करें। प्रशंसा के अहितकर प्रभाव से हटकर निन्दा का कल्याणकारी उद्देश्य ही मनुष्य को सही विकास दे सकता है।
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