परहित सरिस धर्म नहिं भाई 
Parhit Saris Dharam Nahi Bhai

परोपकार जैसा कोई दसरा धर्म नहीं है। परहित का अर्थ है, निःस्वार्थ भाव से दूसरों की भलाई करना। जब कर्म में स्वार्थ और व्यापार का समावेश हो जाता है, वह परोपकार नहीं रह जाता है। परहित की भावना स्वार्थ की चेतना से जुड़ी नहीं होती, अपितु बिना स्वार्थ सहायता का भाव इसमें होता है। परोपकार करते हुए अनेक संकट झेलने पड़ सकते हैं, अनेक बाधाएँ रास्ता रोक सकती हैं। स्वयं भूखा रहकर भी दूसरों की क्षुधा शांत करने और स्वयं कष्ट सहकर भी औरों का कष्ट-निवारण करने की भावना ही इस दिव्य आचरण का मूलाधार है।

स्वयं अभाव में रहकर भी विपन्नों की सहायता करना परोपकार की परिधि में आएगा। महर्षि वेदव्यास ने स्वीकार किया था कि मेरे हजार-हजार वचनों में दो ही अति महत्त्वपूर्ण वचन हैं-परोपकार से पुण्य होता है और परपीड़न से पाप। गास्वामी तुलसीदास ने भी उनके स्वर में स्वर मिलाकर कहा कि परहित के समान कोई दूसग धर्म नहीं है और परपीड़ा की तरह कोई अधर्म नहीं है।