स्वावलम्बन 
Swalamban


पश्चिम की है एक कहावत 

उसको घोखो, उसको घोखा 

राम सहायक उनके होते

जो होते हैं आप सहायक! --बच्चन 


एक व्यक्ति बहुत दिनों तक बैसाखी के सहारे चला, ज्योंही उसकी बैसाखी छीन ली गयी, उसकी गति रुक गयी। ठीक यही स्थिति उनकी है जो स्वावलम्बी नहीं हैं। जो दूसरे के अवलम्ब या सहारे कुछ करने के अभ्यासी हैं, वे प्रगति की ऊँची पहाड़ी पर पहुँच नहीं पाते। आखिर उस लता से हम क्या आशा रख सकते हैं, जिसका अलान (अवलम्बन) के बिना अस्तित्व ही नहीं है।

मानव की चतुर्दिक उन्नति के लिए कोई एक स्वर्णिम शास्त्रोपदेश नहीं है—'दस शास्त्रोपदेश' (Ten Commandments) ही नहीं, अनेक शास्त्रोपदेश हैं। उन शास्त्रोपदेशों में से एक उपदेश स्वावलम्बन भी है। केवल अपने सुन्दर दाहिने हाथ (Good right hand) की शक्ति पर विश्वास रख अपनी बुद्धि से जो अपना मार्ग निर्धारित नहीं करते, वे जीवन के पहले ही मोड़ पर भटक जायँ, तो आश्चर्य की बात नहीं। स्वावलम्बन के दो पहलू हैं-अपना काम आप करना और आत्मनिश्चय। गीताः, में भगवान कृष्ण ने स्वावलम्बन का ही पाठ पढ़ाते हुए कहा है-नादान, दूसरों से सीख न लेनेवाला और आत्मनिश्चय से हीन व्यक्ति नष्ट हो जाता है।

संसार के महापुरुषों की जीवन-कथाओं के पृष्ठ उलटें। आपको पता चलेगा कि जिस गुण ने उन्हें प्रगति के शिखर पर ला खड़ा किया है, वह स्वावलम्बन ही है।

महान नायक, महान नेता, महान व्यापारी, महान वैज्ञानिक सबने अपना रास्ता स्वयं तय किया है। किसी की पीठ पर लदकर उन्होंने मंजिलें नहीं तय की हैं। अपनी सशक्त भुजाओं पर आस्था रखकर बाबर ने उतने बड़े मुगल-साम्राज्य की सुदृढ़ आधारशिला रखी थी।

बेंजामिन फ्रेंकलिन के माँ-बाप इतने गरीब थे कि वे उन्हें ऊँची शिक्षा तक नहीं दे पाये, किन्तु फ्रेंकलिन ने स्वावलम्बन का पाठ पढ़कर विज्ञान और राजकौशल में नाम कमाया। माइकेल फैराडे आरम्भ में जिल्दसाजी करते थे, किन्तु आत्मनिर्भरता के बल पर वे संसार के महान वैज्ञानिक हुए। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर दीन ब्राह्मण को सन्तान थे, सड़क की बत्तियों में वे पढ़ते थे; किन्तु उन्होंने जो यश, अर्जित किया, उसका रहस्य स्वावलम्बन ही है। इसी तरह, नेपोलियन, शेरशाह, महात्मा गांधी, कारनेगी, अब्राहम लिंकन, न्यूटन, जेम्स वाट इत्यादि अनगिनत नाम गिनाये जा सकते हैं, जिन्होंने स्वावलम्बन के बल पर मानवता का त्राण किया तथा अक्षय कीर्ति अर्जित की। इसीलिए जो व्यक्ति अपनी शक्ति पर विश्वास रखकर कार्य में अग्रसर नहीं होता, उसकी पराजय ध्रुव है। अंगरेजी के एक विचारक ने ठीक कहा है, "The supreme fall of falls is this, the first doubt of one's self.' अर्थात्, 'पतन से भी महत्तुम पतन यह है कि किसी को सबसे पहले अपने पर भरोसा न हो।'

दूसरे की शक्ति पर विश्वास रखनेवाला सदा धोखा खाता है। महान् इटालियन कलाकार माइकेल एंजेलो ने ठीक कहा है, 'The promises of the world are for the most part viun phantoms, अर्थात्, 'संसार के अधिकतर विश्वास व्यर्थ मायाओं से भरे है। इसलिए सर्वोत्तुम यही है कि हम केवल अपने पर विश्वास करें।

इसी प्रकार, जो राष्ट्र परावलम्बी होता है, उसकी स्थिति धोबी के कुत्ते की सी होती है-न घर का न घाट का। परावलम्बी राष्ट्र को दूसरों पर निर्भर रहते-रहते ऐसी आदत हो जाती है कि आत्मनिर्भरता सोचना तक भूल जाता है, हर मामले में एक गया-गजरा भिखमंगा-सा हो जाता है। दाता राष्ट्रों के आगे वह हमेशा हाथ फैलाये रहता है, उनकी झिड़की सुनता है और उनका ऐसा गुलाम हो जाता है कि युद्ध तक में घसीटा जाता है। दाता राष्ट्र हमेशा उसका उपहास करते हैं। उसे वे कठपुतली की तरह नचाते हैं। यदि हमें भी महान राष्ट्र के रूप में जीना है, तो हमें स्वावलम्बी होना चाहिए। दूसरे के सामने भिक्षापात्र नहीं फैलाना होगा। यदि सहायता भी मिले तो उसे ठुकराना पड़ेगा, तभी हम अपनी शक्ति एवं प्रतिभा का विकास एवं उपयोग कर सकते हैं और संसार में सच्ची स्वाधीनता की मर्यादा पा सकते है।

स्वावलम्बन ही जीवन है, परावलम्बन मृत्यु। स्वावलम्बन पुण्य है, परावलम्बन पाप। स्वावलम्बन अमृत का स्रोत है, परावलम्बन गरल की गागर। परावलम्बी को भी भगवान् ने हाथ, पाँव, आँख और मस्तिष्क सब-कुछ दिया है, किन्तु वह लूले, लैंगड़े, अंधे तथा मस्तिष्क-शून्य से भी गया-बीता है। वह मनुष्य नहीं, पंशु है; पशु भी नहीं, मृतक पशु है। जिस देश में ऐसे मृतक रहते हैं, उसे हम देश कैसे कहेंगे; उसे तो कब्रिस्तान कहेंगे-ऐसा कब्रिस्तान जहाँ मुर्दे कत्रों में दफनाये नहीं गये हैं, चलते-फिरते नजर आते हैं। क्या भगवान से हम राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के शब्दों में वन्दना न करें

यह पापपूर्ण परावलम्बन चूर्ण होकर दूर हो। 

फिर स्वावलम्बन का हमें प्रिय पुण्य पाठ पढ़ाइए ।।