विज्ञान: वरदान या अभिशाप है  
Vigyan Vardan ya Abhishap Hai


एक मुहानी सबह ज्योंही सूरज की पहली सुनहली किरण ने धरती का स्पर्श किया मनु और शतरूपा की सन्तान ने ऐमा अनुभव किया कि वह पाषाण-तामादि-युग को सहसा लाँधकर विज्ञान-युग में आ पहुंची है। आज तक मनुपत्र कितना असहाय था! कितना बेचाग था! प्रकृतिरानी का वह क्रीत दास था। उसकी भृकुटी के संचालनमात्र से मनुष्य के प्राण पीपल-पात की तरह काँपने लगते थे। किन्तु आज तो वह सम्राट् बन बैठा है। प्रकृति के विशाल साम्राज्य पर उसका एकाधिपत्य क्योंकि उसने विज्ञान का महामंत्र साध लिया है। वह अब भिखारी बौना वामन नहीं; वरन विगट भगवान् है। वह जब चाहे, विज्ञान की नहाशक्ति से आकाश, पाताल और पृथ्वी-तीनों लोकों को तीन डेगों में माप ले सकता है।

विज्ञान-महाप्रभु के गुणों का बखान करने में सहस्रजिह्वा शेषनाग भी संकोच करते हैं, वाग्देवी सरस्वती की वाणी भी शिथिल होने लगती है, तो मानव की बात कौन कहे विज्ञान वह कामतरु है जिसकी छाया मे हम अपने मनोवांछित फलों की प्राप्ति कर सकते हैं। यह अलादीन का वह चिराग है जिसके मिलते ही सारे खजानों के दरवाजे आप-से-आप खुल जाते हैं। विज्ञान ने हमारे सपनों के संसार को साकार कर दिया है। इसने कल्पित इन्द्रासन का सुख-संसार हमारे चरणों पर सादर समर्पित कर दिया है। हम इसके बारे में निस्संकोच कह सकते हैं

जाकी कृपा पगु गिरि लंघे, अंधहु को सब कछु दरसाई।

बहिरौ सुनै, मूक पुनि बोले, रंक चलै सिर छत्र धराई ।। 

विज्ञान के कोटि-कोटि वरदानों का विवरण संभव नहीं। इसने कष्टप्रद यात्रा को सुखाद कर दिया है। रेलगाड़ी, मोटर, बस, स्कूटर, वायुयान, जलयान, हेलीकॉप्टर इत्यादि द्वारा हम बहुत कम समय में लम्बी-से-लम्बी दूरी सुख-चैन से तय कर सकते है। इसके द्वारा जेठ की सघन दुपहरी में वातानुकूलित कक्षों में मसूरी और दार्जिलिंग का मजा- पकते हैं तथा भयानक शीतलहरी में ताप के द्वारा अपने कक्षों में वासंती बयार का आनन्द प्राप्त कर सकते हैं। जो कमरा बिजली के अभाव में भूतनाथ का अखाड़ा मालूम पड़ता था उसमें आप प्रकाश-पर्व मना सकते हैं, जहाँ आपका मन उदास-सा हा रहा था उसमें आप रेडियो और टेलीविजन की मधुर स्वर-लहरियो द्वारा मनोरंजन प्राप्त कर सकते हैं। यदि आप अपने किसी प्रेमी मित्र के बतरस-लालची हैं, तो आपके सामने टेलीफोन रखा है, जरा-सा डायल घुमाने की देर है। एक नगर या एक राष्ट्र की बात कौन कहे, यदि आप समग्र संसार के एक छोर तक सम्पर्क स्थापित करना चाहते हैं, तो 'वायरलेस' और 'केबल आपकी सहायता करने को तत्पर हैं।

असाध्य-से-असाध्य रोग–यक्ष्मा, कैंसर, गैंग्रीन इत्यादि-विज्ञान की सहायता से दूर किये जाते हैं। यह दूसरे धन्वन्तरि की तरह हमारे सामने प्रस्तुत है। यदि आप न्यूयार्क के स्काई-स्केपर में रहकर व्योम-विहार का आनन्द लेना चाहते हैं, तो विज्ञान के विश्वकर्मा आपके सामने करबद्ध खड़े हैं। यदि आप अपने सुन्दर तन पर बेशकीमती मनमोहक फिसलनेवाले कपड़े देखना चाहते हैं, तो मैनचेस्टर और अहमदाबाद की मिलें आपकी सेवा करने को तत्पर हैं। मतवाले बादल के सामने अब कुटज-कुसुमों से पूजा करने का समय बीत गया, आप चाहें तो बादल को ही कैद कर स्वेच्छानुसार कार्य करा सकते हैं। सुना जाता है, 'माँगहि वारिद देहिं जल रामचन्द्र के राज', अर्थात् रामचन्द्र के राज्य में मेघ से याचना करते ही जल मिलता था। विज्ञान-राज्य में तो नया बादल ही खड़ा किया जा सकता है। अगस्त्य के शाप के डर से विन्ध्य झुक गया था, किन्तु आज यह डायनामाइट के डर से भीगी बिल्ली बन जाता है। इस प्रकार, विज्ञान हमारे समक्ष सर्वशक्तिमान सहायक सखा की रूप में आता है।

किन्तु, दूसरी ओर ! यही सखा जब शत्रु बन जाता है, तो हमारा स्वर्ग क्षण-भर मरारव नरक बन जाता है। जो मानव विज्ञान के सौजन्य से महाराजा बना इठलाता फिरता था, वही उसके दौर्जन्य से कीड़े-मकोड़े की मौत मरता है। विज्ञान ने सागर-मन्थन से अमृत कुम्भ निकालकर हमें अमर तो नहीं बनाया; हाँ, हमारे समक्ष गरल-कुंड अवश्य उपस्थित कर दिया है। इसने आज तक अमृत की एक बूंद बनाने में भी सफलता नहीं पायी, किन्तु इसने तीखे जहर पोटाशियम साइनाइड का आविष्कार किया कि जीभ पर सुई की नोक-भर स्पर्श कराते ही आदमी भला-बुरा स्वाद तक बिना जाने बेरोकटोक यमपुर पहुँच जाता है। इसने आज तक ऐसा नहीं किया कि एक औषध छिड़क दे और वीरान-सुनसान स्थान पर मानव-समुदाय बुलबुल को तरह चहकने लगे; किन्तु यदि इसने एक अणु-बम या उद्जन-बम गिरा दिया, तो न मालूम कितने करोड़ मनुष्य पतंगों की तरह जल-भुन जाते हैं। विज्ञान की इस दानवी क्रूर लीला की रोमांचक कहानी अंकित है हिरोशिमा और नागासाकी के कण-कण पर। इसीलिए कविवर दिनकर ने लिखा है-


रसवती भू के मनुज का श्रेय, 

यह नहीं विज्ञान, विद्या-बुद्धि यह आमेय; 

विश्वदाहक, मृत्युवाहक, सृष्टि का सन्ताप, 

भ्रमित पथ पर अन्ध बढ़ते ज्ञान का अभिशाप । 

अमित प्रज्ञा का कुतूक यह इन्द्रजाल विचित्र, 

श्रेय मानव केन, आविष्कार ये अपवित्र ।


विज्ञान यदि एक ओर वरदान का अभिषेक करता है, तो दूसरी ओर अभिशाप के छोट भी बरसाता है। यह एक ओर यदि शंकर का कल्याणकर रूप है, तो दूसरी ओर प्रलयंकर का भयानक स्वरूप भी। यदि एक ओर यह महाविष्णु का पालक पक्ष है, तो दूसरी ओर महारुद्र की विकट भृकुटि-भंग भी। यदि मनुष्य इसके दुर्वासा-कोप को भड़कने न दे, तो यह सृष्टि अमंगलहारी मंगलभवन बन जाय। यदि भड़कने दिया, तो सृष्टि अमंगल की खान या श्मशान बन जा सकती है, इसमें कोई सन्देह नहीं।