विकलांग-समस्या 
Viklang Samasya

विकलांगों के जीवन की अधिकांश समस्याओं की ओर हमने अभी तक ध्यान नहीं दिया है। अपने सामाजिक परिसर में हम जिन्हें विकलांग कहते हैं, उनके प्रति उपेक्षा और घृणा से मिश्रित दयाभाव का ही हमारे भीतर सृजन होता है। हम भूल जाते हैं कि महाराज विदेह जनक की सभा में अष्टावक्र की अंगरचना ने विकलांगवर्ग की बौद्धिक श्रेष्ठता का जयघोष किया था, तैमूरलंग के अभियानों ने विकलांगों की विजय-आकांक्षा का शंखनाद किया था, सूरदास की बंद आँखों ने वात्सल्य और श्रृंगार के अंधेरे कोनों का सजग उद्घाटन किया था, मिल्टन की लुप्त नेत्र-ज्योति ने 'पैराडाइज लॉस्ट' की प्रखर सर्जना की थी। ऐसे अनेक उदाहरण इतिहास में बिखरे हुए हैं, फिर भी समाज की धारणा विकलांगों के प्रति अत्यन्त उपेक्षापूर्ण रही है। उनकी आकृति तथा अंग-संचालन का उपहास किया गया है अथवा उन्हें दया का पात्र बनाकर परजीवी घोषित किया गया है। शताब्दियों से उपेक्षित इन्हीं विकलांगों की समस्याओं की ओर व्यान आकर्षित करने के उद्देश्य से 1981 को अन्तरराष्ट्रीय विकलांग वर्ष घोषित किया गया।

सारे विश्व में विकलांगों की संख्या लगभग 375 लाख से 415 लाख तक होगी। पल भारत में ही लगभग 42 लाख विकलांग हैं। समूचे देश में विकलांगों को कहीं नैसर्गिक विकलांगता का सामना करना पड़ता है, तो कहीं दुर्घटनाओं, रोगों असामाजिक तत्त्वों द्वारा विकलांगता का शिकार होना पड़ता है। अधिकांश विकला ऐसा अनुभव करते हैं कि समाज उनके प्रति उपेक्षा-भाव रखता है, लोग उनसे घा करते हैं। अपने समूचे जीवन को अर्थहीन मानकर असहाय और विवश जीवन बिताने के लिए बाध्य विकलांग की समस्याएँ भिक्षा-वृत्ति से जुड़कर और भी दुःखद हो जाती हैं। तिरस्कृत विकलांग समाज से टूटकर, लोगों के दुर्व्यवहार से पीड़ित होकर भीख माँगने के लिए विवश हो जाते हैं। स्थिति यह है कि भारत में लगभग 83 लाख भिखारी हैं, जिनमें लगभग 17 लाख अपंग हैं । प्रारम्भ में भीख मांगना एक विवशता हो सकती है, लेकिन बाद में यह आदत बन जाती है। निराश्रित तथा उपेक्षित विकलांगों के पास भीख माँगना ही अपनी न्यूनतुम आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन रह जाता है। अब समय आ गया है कि हम अपने परिवेश के इन विकलांगों की समस्याओं को अपनी समस्या समझें और उनके कुंठित व्यक्तित्व को विकास की सही दिशा दें। शरीर के विकलांग हो जाने पर भी मन के घोड़े विकलांग नहीं हो जाते, उनकी उड़ान सभी दिशाओं का स्पर्श करती है। वस्तुतः, विकलांगों को दया की नहीं, सहयोग की आवश्यकता है; सहानुभूति की नहीं, साहचर्य की आवश्यकता है। कृत्रिम अंग-प्रत्यारोपण एवं आर्थिक स्वावलम्बन की सुविधा प्रदान करने से उनका मानसिक विकास हो सकता है।

विकलांगों की जिजीविषा को ऊँचाई प्रदान करने, एक सम्मानित स्तर प्रदान करने की कोशिशें ही समाज के इस सर्वाधिक उपेक्षित वर्ग को सही संसार दे सकता है। वर्तमान व्यवस्था की कमजोरियों ने विकलांगों की समस्याओं के समाधान की दिशा में अपनी शिथिलता दिखलायी है। किसी नये कवि न व्यंग्य करते हुए लिखा है

यह 

क्या कम है 

कि अंधे और बहरों को अपना शासक बना रहा है । 

मेरा देश तो विकलांग-वर्ष

चौंतीस सालों से मना रहा है। 

संयुक्त राष्ट्रसंघ की महासभा ने 17 दिसम्बर, 1976 ई0 के प्रस्ताव-संख्या 31/123 में 1981 ई0 को अन्तरराष्ट्रीय विकलांग-वर्ष घोषित किया था। विकलांग और सर्वांग व्यक्तियों के बीच विभाजन-रेखा खींचनेवाली सामाजिक और मनोवैज्ञानिक बाधाओं को दूर करने का शाश्वत संकल्प आज भी हमारे सामने है।।