नई पुस्तके खरीदने के लिए रुपये की माँग पिताजी को पत्र ।



माध्यमिक विद्यालय,

पूर्णिया

28-1-1992 

पूज्यवर पिताजी,

सादर प्रणाम!

आपने अपने पत्र में लिखा है, "मैं तुम्हारे पास केवल मासिक व्यय के लिए सौ रुपये भेज रहा हूँ। तुमने नयी पुस्तकों के क्रय के लिए दो सौ रुपया की मांग की है। मेरा विचार है कि तुम अभी पुरानी किताबों से ही काम चला लो, इस महंगी में और रुपये खर्च करना ठीक नहीं है।" मुझे आपका यह पत्र पढ़कर बड़ा दुःख हुआ। आपके जैसे सम्पन्न और शिक्षित अभिभावक इस प्रकार लिखें, तो दुख और आश्चर्य के सिवा और क्या हो सकता है?

आप जानते हैं, थोरो की उक्ति-"पुराना कोट पहनो और नयी कितान खरीदी।" पुस्तक से बढ़कर और क्या धन हो सकता है? पुस्तकों का मूल्य रत्नों से भी अधिक है। क्योंकि रत्न बाहरी चमक-दमक दिखाते हैं जबकि पुस्तके अन्तःकरण को उज्ज्वल करती हैं। महात्मा गाँधी ने कहा है, "विचारों के युद्ध में जब पुस्तक-रूपी अस्त्र ही नहीं रहेंगे, ता काम केसे चलेगा ?" मन की ताजगी के लिए नयी-नयी पुस्तकों के उद्यान-भ्रमण के सिवा और स्थान ही कहाँ है ! मानवजाति ने जो कुछ किया है, सोचा है और पाया है, वह तो सब पुस्तकों कही जादूभरे पृष्ठों में सुरक्षित है। गप्पी मित्रों के साथ रहकर गप्प में अमूल्य समय नष्ट करने या फैशनपरस्त दोस्तों के साथ सिनेम में पॉकैट कटवाने से अच्छा है कि पुस्तको से मित्रता की जाय। अच्छे-स अच्छे मित्र धोख दे जा सकत है किन्तु पुस्तकें तो ऐसी मित्र हैं, जो कभी विश्वासघात नही करती।

अत आपसे अनुरोध है कि आप शीघ्र-से-शीघ्र दो सौ रुपये तार-मनीआर्डर द्वारा भेज दें। अभी अभी विवेकानन्द की प्रन्थावली का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित हुआ है। मेरा मन उसे खरीदने के लिए ललचा रहा है।

आपका आज्ञाकारी पुत्र

सुरेशनन्दन

पता-श्री कामता श्रीवास्तव, एडवोक

महरसा-852201