सिनेमा का प्रभाव
Cinema ka Prabhav


समाचार पत्र, सिनेमा और दूरदर्शन जैसे जनसंपर्क के माध्यम लोगों के विचारों और अनुभूतियों को करोड़ों लोगों तक पहुँचाने वाले खास वाहक के रूप में परिणत हो चुके हैं। शायद आजकल सिनेमा और दूरदर्शन ने जवान और बुढे, अमीर और गरीब, स्त्री और परुष सब पर अपना अधिकार जमा रखा है। आराम कुरसी पर विश्रम करते हुए वयोवृद्ध, सोफे पर बैठे हुए युवक, हरे भरे घास भरे मैदान में लेटते हुए दर्शक, टि, वी. पर होनेवाले कार्यक्रमों का आनन्द लूटना - आजकल एक सामान्य दृश्य सा हो गया है। फिर भी टी.वी. सिनेमा की लोक प्रियता को कम न कर सकता।


तकनीकी दृष्टि से और मनोरंजन की दृष्टि से सिनेमा बहुत उन्नति कर चुकी है। सिनेमा बनावट की दृष्टि से, कथानक की दृष्टि से, और तकनीकी दृष्टि से बहुत किस्म के होते है। अगर यह माध्यम सावधानी से काम में लाया जाये तो युवक और युवतियों के बीच ज्ञान के प्रसार का सशक्त साधन बन जायेगा । फिलमी निर्माता फिलमी माध्यम से करोड़ों लोगों तक अपने फिलम द्वारा अपने विचार पहुँचा सकते हैं। इसलिए अगर कोई निर्माता कोई फिलम बनाता है, तो उनको चाहिये कि चाहे फिलम लंबी हो या बडी, विज्ञान संबंधी फिलम हो या ज्ञानवर्द्धक बच्चों में किसी बात के जानने की जिज्ञासा पैदा करे । बच्चों और युवकों के मन में यह भाव पैदा करना चाहिये कि सिनेमा के उद्देश्य सिर्फ मनोरंजन नहीं होना चाहिये, बल्कि ज्ञान का विस्तार भी होना चाहिये । दूसरे शब्दों में यह कह सकते हैं कि फिलम हो तो उसमें शैक्षिक मूल्य होना चाहिये । पर्यटन संबंधी विषयों, वैज्ञानिक, सांस्कृतिक विषयों पर देशभक्ति भरी ऐतिहासिक घटनओं पर, परिवार नियोजन संबंधी सामाजिक आर्थिक विषयों पर फिलम दिखाने की आयोजना भी हो जिससे देश के नवयुवकों को ज्यादा भलाई हो।


असल में सिनेमा एक मुनाफाखोरी धंधा बन चुकी है। फीचर फिलम बुरी वासनाओं को पूर्तिकरने और भड़काने के हेतु बनती है, उन फिलमी कहानियों में लालच, मद्य पान, द्वेष, हिंसा, डकैती, भार पीट आदि ही बढा चढाकर दिखाये जाते हैं, जो दर्शकों के मन को बरबाद करके ही छोडते हैं। इसलिए हरएक नागरिक का यह कर्तव्य है कि वे फिलमी निर्माताओं पर प्रभाव डालें कि वे ऐसी फिलम ही बनाएँ और दिखायें जो बच्चों युवक व युवतियों के मस्तिष्क के विकास में सहायक रहें और मानव को मानव की तरह रहने या जीने के लिए बाध्य करे।