मुझ जैसा अपना दुश्मन दूसरा नहीं 
Mujh Jaisa Apna Dushman Dusra Nahi


स्वभाव से मनुष्य अहंकारी है। यह स्वाभाविक है कि हर साधारण से साधारण मनुष्य भी, चाहे दूसरे लोग उसके बारे में कुछ भी सोचें पर अपने को बहुत बडा ही समझता है । बडी मश्किल से ही कोई अपनी गलती को कबूल करता है। बल्कि वह समझता है कि हमेशा वही सही है । इस बात के अपने बारे में लागु करके, मैं कह सकता हैं कि अगर मैं इस भाव को अपनाऊँ तो यही बडी मूर्खता होगी। दुश्मन दूसरों की बरबादी जरूर करते हैं।


ऐसे सोचने से कि मैं सर्वदा सही रास्ते पर हूँ, मैं कभी कुछ गलती नहीं करूँगा और मैं ही सब से बड़ा है और उसी कारण मेरा कोई दुश्मन नहीं, मैं ही अपना सच्चा दुश्मन बनता हूँ, क्योंकि यह गण मझ में अहं के सिवा और कुछ नहीं। 'अहं या अहंकार तो किसी के पतन के आगे आगे चलता है । जब मैं अपनी गलतियों की ओर अपनी आँखें बन्द कर लेता हैं और जब मैं नहीं मानता कि मेरे कार्य गलतियों से परे नहीं है और जब मैं अपनी मानसिक उन्नति का उचित ख्याल नहीं रखता तब मैं अपना ही दुश्मन बनता हूँ।


इसका दूसरा पहलू भी है । मैं अपना ही दुश्मन नहीं हो सकता । मान लें कि हर एक में अहं की भावना है और मैं भी उस अहं से प्रभावित हूँ । इसलिए ऐसी बात नहीं कि मुझमें कोई भी बुराइयाँ या दुर्बलताएँ नहीं हैं । मैं अपना अज्ञान प्रदर्शित करना नहीं चाहुँगा, दूसरों के सामने हँसी मज़ाक का पात्र बनना नहीं चाहूंगा । उनके सामने उनसे भी कम सिद्ध होना नहीं चाहूँगा । लेकिन मैं अपने लिए झूठा नहीं हो सकता, क्योंकि जब मैं एक आइने के सामने खडा हो जाता हूँ तो मैं आइने में अपने हर अंग को देख सकता हूँ।


अपने में होनेवाली बुराइयाँ आइने में साफ साफ दीखती हैं। आइने रूपी अंतःकरण में हरेक की बुराई या कमी प्रतिबिंबित हुए बिना नहीं रहती । अंतःकरण की खोज करने पर साफ़ साफ़ मालूम होगा कि कहाँ मैं गलती करता हूँ और कहाँ मैं सही हूँ अंतःकरण को कोई धोखा नहीं दे सकता । मैं अपना ही दुश्मन नहीं बन सकता । इस हालत में अगर मैं बुरा बनना चाहता तो मैं अपना ही दुश्मन बन सकता।