जरा भैर त द्याखो
Jara Bher Ta Dyakho
हे मित्र!
मीन सूणी छ्याई—
'पाणी डालो त पत्थर भि पिघलि जाँदन' ।
पर तीन त य पहाडी-पत्थरुपर--
न सिर्फ गंगाजल चढ़ाई,
बल्कि यूक वास्ता पाणिक तरां खून भि बगाई।
उ बि यूंक काम कख आई?
यी पत्थर कख पिवलिन ?
यूं पर सिमालु तक नि जामि ।
अपण भाई-बन्धुक दुसा देखिक ---
कबि यूकि जिड़ि न कामि ।
यून ऊँक हथ्थ नि थामि ।
यी हमेसा अन्धविस्वास, रूढिवाद—
कू दल-दल मा धस्याँ रै गेन ।
अभाव-उपेक्षा, दुःख-दर्द सब से गेन ।
पर उख बिटिक भैर नि आई।
न जाणी यूं तैक्य ह ग्याई ?
पाडू मा डाल-बूट, नदी-नाल,
सब परार्थ हेतू जीण छन ।
पर अफसोस ! कि आदिम ही एक इन छ,
जु अफ कुण भि कख जीयूँ छ ?
उ भांड-कूड बेचिक ठर्रा पीयूँ छ ।
कबि आँख-कान खोलिक भैर त द्याखो।
लोग तुम कुण क्य छन बुन्न –
'पहाड़ी मित्र किस के ।
भात खाई अर खिसके।।
सूरज हूँद अस्त ।
अर पहाड़ी हुँदन मस्त' ।
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