जरा सोच 
Jara Soch



बहु विकार अर व्यसनक—

देह बणी जैकी गुलाम। 

उ दीन-दुःखी मनिखी फिर—

कनकैक ले सकद इन्तकाम ।।


निनानब्बे प्रतिसत झूठ—

जब धूल सच पर झाडलू, 

तब हिरण्यकसिपु पापी पेट तै—

एक सच कनकक फाडलू ?


जीवनमूल्यों पर अचाणचकि—

टूटी जाँद कहर क्यो कू ? 

आत्मबल छ पास ऊँक, 

पर देह-बल नी छ, यो क ।।


ए जमानू मा जीण कु, 

इंसान फोलादी हण चयाँद । 

तभि तन-मन-धन क सहारू—

सम्मान से इख जी तक्याँद ।।