एक पुस्तक की आत्मकथा
Ek Pustak Ki Atmakatha


मैं एक पुस्तक हूँ, मेरे अन्दर कई सारे लिखित पेज हैं। मुझे अपना रूप व नाम लेने में कई महीने लगे हैं। मैं कागज की बनी हूँ, कागज बाँस व लकड़ी की लुगदी से बनता है। पेड़ काटे जाते हैं व लकड़ी की लुगदी को इसके लिए तैयार किया जाता है। यह एक बड़ा व जटिल' कार्य है। फिर कागज को छपाई कारखाने में ले जाते हैं जहाँ कागज छपते हैं व इच्छानुसार आकार में काटे जाते हैं। फिर मुझे सुन्दर कागज में लपेटा जाता है।


मेरा नामावली पृष्ठ बहुत आकर्षक है जिस पर मेरा व प्रकाशक का नाम लिखा है। मैं बहुत खूबसूरत, आकर्षक व ध्यान केन्द्रित करने वाली हूँ। लोग आते हैं व मुझे देखते हैं, मुझे छूते हैं व मेरे पृष्ठ पलटते हैं और मुझे खरीदते हैं। वे मुझे लेकर गर्वित होते हैं। वे मुझे अपनी मेज व अलमारियों में सँभालकर रखते हैं।


मेरे अन्दर रंगीन चित्र, कलाकृति और पहाड़े हैं। छपी हुई सामग्री के साथ-साथ विषय-सूची भी है जो कि रुचि के अनुसार पाठ खोजने में सहायता पहुँचाती है। अन्त में भी एक विषय-सूची है जो पाठकों को विषय खोजने में सहायता पहुँचाती है।


मेरा लेखक बहुत विद्वान् है। वह बुद्धिमान, प्रसिद्ध व अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में सक्षम हैं। वह मेरे पिता व मैं उनकी बेटी हूँ।


मेरा मुख्य उद्देश्य अपने पाठक को निर्देशित, शिक्षित करना व मनोरंजन प्रदान करना भी है। मैं बहुत अच्छा व वफादार मित्र हूँ। मेरा पाठक मुझे बार-बार पढ़ता है। मैं उपयोगी व आकर्षक हूँ। मैं चाहती हूँ कि मेरी हमेशा अच्छी देखभाल हो। अगर कोई मेरे साथ बुरा व्यवहार करता है, मेरे पृष्ठों को फाड़ता है तो मुझे बहुत दु:ख होता है।