सत्य की शक्ति  
Satya Ki Shakti


संसार में ऐसे-ऐसे दृढ़ चित्त मनुष्य हो गए हैं जिन्होंने मरते दम तक सत्य की टेक नहीं छोड़ी, अपनी आत्मा के विरुद्ध कोई काम नहीं किया। राजा हरिश्चंद्र के ऊपर इतनी-इतनी विपत्तियाँ आईं, पर उन्होंने अपना सत्य नहीं छोड़ा। उनकी प्रतिज्ञा यही रही -


"चंद्र टरै, सूरज टरै, टरै जगत् व्यवहार। 

 पै दृढ़ श्री हरिश्चंद्र को, टरै न सत्य विचार।" 


महाराणा प्रतापसिंह जंगल-जंगल मारे-मारे फिरते थे, अपनी स्त्री और बच्चों को भूख से तड़पते देखते थे, परंतु उन्होंने उन लोगों की बात न मानी जिन्होंने उन्हें अधीनतापूर्वक जीते रहने की सम्मति दी, क्योंकि वे जानते थे कि अपनी मर्यादा की चिन्ता जितनी अपने को हो सकती है, उतनी दूसरे को नहीं। एक बार एक रोमन राजनीतिक बलवाइयों के हाथ में पड़ गया। बलवाइयों ने उससे व्यंग्यपूर्वक पूछा, "अब तेरा किला कहाँ है ?" उसने हृदय पर हाथ रखकर उत्तर दिया, "यहाँ।" ज्ञान के जिज्ञासुओं के लिए यही बड़ा भारी गढ़ है।