बूढ़ा गरुड़
Budha Garud
एक बार बड़ के विशाल वृक्ष पर एक बूढ़ा व दृष्टिहीन गरुड़ रहता था। उस वृक्ष पर और भी बहुत सारे पक्षियों के घोंसले थे। चूंकि गरुड़ दृष्टिहीन था इसलिए वह अपना भोजन नहीं जुटा पाता था। इसी कारण वृक्ष पर जो दूसरे पक्षी रहते थे, वे सहानुभूति और दयावश उसके भोजन का प्रबंध कर देते थे। बदले में बूढ़ा गरुड पक्षियों की अनुपस्थिति में उनके बच्चों की रखवाली करता था। पक्षी अपने बच्चों को गरुड़ के पास छोड़कर निश्चित हो जाते थे। उन्हें उस पर पूरा भरोसा था।
एक बार कहीं से एक बिल्ली उस वृक्ष पर आ गई। यह देखकर पक्षियों के बच्चे भयभीत हो गए और जोर-जोर से चीखने लगे। बूढे गरुड़ को तुरंत खतरे का आभास हो गया। उसने कड़क कर पूछा, "कौन है वहां?''
"मैं बिल्ली हूँ श्रीमान!", बिल्ली ने उत्तर दिया।
"खबरदार, जो तुम वृक्ष पर चढ़ी। दफा हो जाओ यहाँ से, नहीं तो मुझे मजबूरन तुम्हें सबक सिखाना पड़ेगा।", गरुड ने उसे धमकाया।
पहले तो बिल्ली डर गई। फिर वह चापलूसी से बोली, "श्रीमान गरुड़, मैं तो तीर्थ यात्रा पर निकली हुई हूँ। मैं बहुत से तीर्थ स्थानों का भ्रमण कर चुकी हूँ और अनेक साधु-संतों से मिल चुकी हूँ। आप भी नि:सन्देह किसी महात्मा से कम नहीं लगते। कृपया मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं आपके चरण स्पर्श कर सकूँ।"
बूढ़ा गरुड़ बिल्ली की झूठी प्रशंसा में फँस गया और अपने आप को वास्तव में संत-महात्मा समझने लगा। उसने बिल्ली को अपने चरण छूने की आज्ञा दे दी। बिल्ली तुरंत वृक्ष पर चढ़ गई और उसने एक पक्षी के बच्चे को मार दिया। उसने गरुड़ के चरण स्पर्श किए तथा पक्षी के बच्चे को गरुड़ के चरणों के निकट ही खाया, जिसे दृष्टिहीन गरुड़ देख नहीं पाया। अब तो यह बिल्ली का रोज का काम हो गया। वह रोज आती और एक बच्चे को अपना शिकार बनाती।
उस वृक्ष के पक्षियों को जब अपने-अपने बच्चे कम लगने लगे तो उन सबने मिलकर एक सभा की। सभा में निर्णय लिया गया कि इस विषय में गरुड़ से बात की जाए। अत: सभी मिलकर गरुड़ से मिलने पहुंचे।
उन्होंने गरुड़ के आस-पास पंख और हड्डियों को बिखरे हुए देखा तो उन्हें गरुड़ की नीयत पर शक हुआ। वे समुझे कि गरुड़ ने ही उनके बच्चों को मारा है। फिर तो उन्होंने आव देखा ना ताव और सभी ने मिलकर गरुड़ पर आक्रमण कर उसका अंत कर दिया।
इस प्रकार बेचारे गरुड़ को झूठी प्रशंसा के फेर से अपनी जान गंवानी पड़ी।
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