कृतघ्न राजू
Kritghan Raju
एक बार गर्मियों की दोपहर में राजू और मोती पाठशाला से लौट रहे थे। वे दोनों बहुत घनिष्ठ मित्र थे। हमेशा एक साथ पाठशाला जाते और साथ ही घर लौटते थे। जन का महीना था। सूरज आग बरसा रहा था। शरीर को झुलसा देने वाली लू चल रही थी। जैसे-तैसे वे कुछ दूर तक चले। जब उनकी हिम्मत जवाब दे गई थी। इसलिए तपती धूप में पसीने से परेशान होकर वे दोनों एक घने वृक्ष की छाया में बैठ गए।
दोनों ने अपने-अपने बस्ते उतारे और वृक्ष के तने के सहारे आराम से पसर गए। दोनों को पेड़ की छाया में बैठकर बहुत आराम मिला। थोड़ी देर बाद मोती ने राजू से पूछा, "क्या तुम जानते हो यह कौन-सा वृक्ष है?"
राजू बोला, "यह एक साधारण वृक्ष है जो किसी काम का नहीं है। देखो ना, कितना मोटा तना है इसका और इसके पत्ते भी कितने घने हैं, परन्तु फिर भी यह कोई फल नहीं देता। यह बेकार वृक्ष है। पता नहीं किसने यह बेकार सा पेड़ यहाँ लगा रखा है। इसके स्थान पर यदि आम या जामुन का पेड़ लगा होता तो कितना अच्छा था। हम तुम मीठे-मीठे फल खा रहे होते। कितना मजा आता।"
मोती को यह सुनकर अच्छा नहीं लगा। वह बोला, "राजू, हमें इस तरह किसी को भी भला-बुरा नहीं कहना चाहिए। ईश्वर ने सभी को कुछ गुण और कुछ दुर्गुण दिये हैं। हम उसकी रचना को नहीं समझ सकते, इसलिए, हमें उसकी बनाई हुई किसी भी वस्तु या प्राणी की बुराई नहीं करनी चाहिये। हम में और तुम में भी कुछ गुण और कुछ अवगुण हैं, फिर यह तो वृक्ष है।"
यह सुनकर भी राजू पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वह अपनी बात पर अड़ा रहा और वृक्ष की बुराई करता रहा। अब तक वृक्ष उन दोनों की सभी बातें सुन चुका था। मोती की अच्छी बातें सुनकर पेड़ का मन उसके प्रति प्यार से भर गया परंतु राजू की बातों से उसके मन को बहुत ठेस पहुंची और बहुत क्रोध भी आया।
जब पेड़ अपने क्रोध पर नियंत्रण न रख पाया तो उसने राजू से कड़क कर कहा, "अरे दुष्ट बालक! जब तुम अत्यधिक गर्मी से परेशान हुए तो मेरी ही छाया में आए। मेरी छाया की ठंडक से ही तुम्हें गर्मी से राहत मिली है। मुझे धन्यवाद देने के बजाए तुम मुझे बेकार कह कर कोस रहे हो। तुम तो बहुत ही कृतघ्न लड़के हो। मैं ऐसी कृतघ्नता और नहीं सह सकता, अत: तुम अभी खड़े होकर यहाँ से चले जाओ।"
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