नैतिक कहानी "मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला"



श्री रामकृष्ण परमहंस के गले में नासूर हो गया था। उन्हें देखने श्रीशशधर तर्कचूड़ामणि उनके पास आए। उन्होंने कहा, “आप अपने मन को रोगग्रस्त अंग पर केंद्रित करके 'रोग चला जा', 'रोग चला जा'-ऐसा क्यों नहीं कहते? ऐसा कहने से निश्चय ही आपका रोग चला जाएगा।"

इस पर श्री रामकृष्णदेव बोले, “तुम विद्वान् होकर मुझे ऐसी सलाह देते हो? जब मैंने अपना मन माँ आनंदमयी को समर्पित कर दिया तो उसे वहाँ से हटाकर इस हाड़-मांस रूपी तुच्छ पिंजड़े पर कैसे लगाऊँ?” तब शशधर बोले, “आप माँ की ही प्रार्थना क्यों नहीं करते कि वह आपको रोगमुक्त कर दे?"

परमहंस बोले, "जब मैं माँ के बारे में सोचता हूँ, तो मेरा यह भौतिक शरीर लुप्त हो जाता है और मैं देहहीन रह जाता हूँ। इसलिए इस देह के बारे में मुँह से किसी भी प्रकार की प्रार्थना नही कर सकता!"