नैतिक कहानी "जहाँ सुमति तहँ संपत्ति नाना"



भगवान् बुद्ध का जब पाटलिपुत्र में शुभागमन हुआ, तो हर व्यक्ति अपनी-अपनी साम्पत्तिक स्थिति के अनुसर उन्हें उपहार देने की योजना बनाने लगा। राजा बिम्बिसार उनके पास गए और उसने राजकोष से लाए कीमती हीरे, मोती और रत्न उन्हें पेश किए। बुद्धदेव ने सबको एक हाथ से सहर्ष स्वीकार किया। इसके बाद मन्त्रियों, सेठ-साहूकारों और धनी व्यक्तियों ने एक-एक कर अपने-अपने उपहार उन्हें अर्पित किए और बुद्धदेव ने उन सबको एक हाथ से स्वीकार कर लिया।

इतने में 70-80 बरस की एक बुढ़िया लाठी टेकते-टेकते वहाँ आई । उससे ठीक तरह से चलते भी नहीं बन रहा था। बुद्धदेव को प्रणाम कर वह बोली, “भगवन् आपके आने का समाचार मुझे अभी-अभी ही मिला। उस समय मैं यह अनार खा रही थी ।

मेरे पास कोई दूसरी चीज न होने के कारण मैं इस अधखाए फल को ही ले आई हूँ। यदि आप मेरी इस तुच्छ भेंट को स्वीकार करें, तो मैं अहोभाग्य समझँगी।” भगवान बुद्ध ने दोनों हाथ सामने कर वह फल ग्रहण किया ।

राजा बिम्बिसार को यह देख बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने बुद्धदेव से कहा, “भगवन्! क्षमा करें! एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ। कृपया उसका समाधान करें ! हम सबने आपको कीमती और बड़े-बड़े उपहार दिए, जिन्हें अपने एक हाथ से ग्रहण किया, लेकिन इस बुढ़िया द्वारा दिए गए छोटे एवं जूठे फल को आपने दोनों हाथों से ग्रहण किया, ऐसा क्यों?”

यह सुन बुद्धदेव मुसकराए और बोले, “राजन्! आप सबने अवश्य बहुमूल्य उपहार दिए हैं, किन्तु यह सब आपकी संपत्ति का दसवाँ हिस्सा भी नहीं है। आप लोगों ने मूल्यवान वस्तुओं का दान करके अपना बड़प्पन ही प्रकट किया है।

आपने यह दान दीन और गरीबों की भलाई के लिए नहीं किया है। इसलिए आपका यह दान 'सात्विक दान' की श्रेणी में नहीं आ सकता। इसके विपरीत इस बुढ़िया के पास देने के लिए कुछ न होते हुए भी उसने अपने मुँह का कौर ही मुझे दे डाला है।

उसने तुच्छ भेंट ही क्यों न दी हो, सच्चे अंतःकरण से दी है। भले ही यह बुढ़िया निर्धन है, लेकिन इसे संपत्ति की कोई लालसा नहीं है। इसी कारण यह तुच्छ वस्तु को ही अपनी संपत्ति समझती है और इसी में उसे संतोष है।

यही कारण है कि इसके दान को मैंने खुले हृदय से दोनों हाथों से स्वीकार किया है।"