नैतिक कहानी "केहि कर हृदय क्रोध नहिं दाहा"



एक बार तीर्थंकर महावीर पूर्व की ओर खड़े-खड़े सूर्यदेव का आतप ले रहे थे। इतने में कुछ लोग वहाँ आये। भगवान् महावीर को उस स्थिति में देख उन्हें हँसी आई और उन्हें शरारत करने की सूझी। एक व्यक्ति ने उन पर धूल उड़ाई, किन्तु वे आतप में लीन रहे। इस पर दूसरे ने उनपर कंकड़ फेंके, किन्तु भगवान ने उसकी ओर देखा तक नहीं। तीसरे ने उन पर थूका, लेकिन भगवान् शांत ही खड़े रहे।

यह देख वे आपस में कहने लगे, “अरे! यह कैसा आदमी है, थूकने पर भी इसे क्रोध नहीं आया, न ही इसने हमें भला-बुरा कहा।” तब दूसरा बोला, “यह तो कोई पागल मालूम होता है, या गूँगा।” तीसरा बोला, “यह तो कोई महा ढोंगी दिखाई देता है। मैं इसमें गुस्सा लाता हूँ।” और यह कह उसने उनके सिर पर बहुत सारी धूल फेंक दी, किन्तु इसका भी उस संत पुरुष पर कोई असर नहीं हुआ। तब उसने उन पर मुष्टि-प्रहार किया, किन्तु उन्हें शांत खड़े देख उसने उन पर ढेले फेंके और पास में पड़ी हड्डियों की नोंक उनके शरीर में चुभोने लगा। इसका भी कुछ असर न होता देख उसने उन पर भाले से प्रहार किया, लेकिन भगवान् की शांति भंग न हुई। वे आँखें बंद किए मौन खड़े रहे। उनकी शांत मुद्रा से प्रसन्नता टपक रही थी।

अब तो उन सबको पश्चात्ताप हुआ कि उन्होंने व्यर्थ ही एक साधु पुरुष को तंग किया। वे उनके चरणों पर गिर पड़े और बोले, “भगवन् ! हमें क्षमा करें, आपको अकारण ही कष्ट दिया।” भगवान् महावीर तो अहिंसा के स्रोत थे। उन पर दुष्ट व्यवहार का कैसे असर हो सकता था? उन्होंने आँखें खोलीं और मुसकराकर क्षण भर के लिए उनकी ओर देखा। आत्मग्लानिवश वे लोग उनसे आँखें भी न मिला सके और दुःखी अंतःकरण के साथ वहाँ से चले गए।