नैतिक कहानी "क्या धर्म का मूल है"
महाराष्ट्र के संत एकनाथजी के यहाँ श्राद्ध था। खीर-हलवा आदि पकवान बने थे। उनकी मीठी सुगंध के कारण एक महार (अस्पृश्य) दंपत्ति वहाँ आ पहुँचा। उनके साथ एक छोटा बालक भी था। वह अपनी माता से बोला, “माँ! यहाँ तो बढ़िया पकवान बने हैं और मुझे जोरों से भूख लगी है।" माँ ने कहा, “पर बेटा, हमारे भाग्य में ये पकवान कहाँ हैं? ये तो ब्राह्मणों के लिए होंगे। हमें तो बचा खुचा ही मिलेगा।"
ये शब्द सुनते ही एकनाथजी का हृदय द्रवित हो उठा। उन्होंने सोचा, “हरिजन हरि के भक्त होते हैं और सबका शरीर भगवान् का मंदिर है। यदि इन्हें ही भोग लगाया जाए, तो क्या वह भगवान् को भोग लगाना नहीं होगा?” और उन्होंने पत्नी से उस दंपत्ति को भोजन परोसने के लिए कहा। पत्नी गिरिजाबाई पति के सामन ही धर्मपरायणा थी । उसने महार दंपत्ति को पेट भर भोजन परोसा और पान-सुपारी देकर उन्हें विदा किया। एकनाथजी ने अपनी पत्नी से उस स्थान पर जल छिड़कने और दूसरा भोजन बनाने के लिए कहा, किन्तु महार-दंपत्ति द्वारा भोजन करने की बात जब ब्राह्मणों को मालूम हुई, तो उन्होंने भोजन करना अस्वीकार कर दिया ।
एकनाथजी ने उन्हें बताया कि उन्होंने उस महार-दंपत्ति को भूखे होने के कारण ही भोजन कराया था। वह भोजन उच्छिष्ट हो जाने के कारण अब उन्होंने दूसरा भोजन बनाया है, किन्तु काफी अनुनय-विनय करने पर भी ब्राह्मण न माने और उन्होंने भोजन का बहिष्कार कर दिया। एकनाथजी बड़े दुःखी हुए कि ब्राह्मण बिना भोजन किए ही चले गए।
तब उनके एक संबंधी ने उनसे कहा, “आपने यह भोजन तो पितरों के लिए बनाया था, न कि ब्राह्मणों के लिए, इसलिए आप क्यों दुःखी होते हैं? आप अपने पितरों को ही सीधे क्यों आमंत्रित नहीं करते?" बात एकनाथजी को जँच गई और उन्होंने पत्नी से पत्तल लगाने के लिए कहा ।
भोजन परोसे जाने पर उन्होंने पितरों से 'आगतम्' कहा और लोगों को यह देख आश्चर्य हुआ कि उनके पितर सूर्यनारायण, चक्रपाणि और भानुदास वहाँ आ गए और उन्होंने अपने-अपने आसन पर बैठकर भोजन किया तथा तृप्त हो एवं आशीर्वाद दे वे अंतर्धान हो गए। यह बात जब उन ब्राह्मणों को मालूम हुई, तो उन्हें अपने किए पर पश्चात्ताप हुआ और उन्होंने एकनाथजी से क्षमा माँगी।
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