नैतिक कहानी "साईं इतना दीजिए"



हजरत उमर (द्वितीय खलीफा) बहुत सादगी पसंद थे। फिलस्तीन के अपने राजकोष से अपने परिवार के पोषण के लिए वे केवल बीस रुपया माहवार लेते थे। इससे उनकी हालत इतनी खराब रहती कि कोहनी के पास फटे कपड़ों पर चमड़े के पैबंद लगाने पड़ते, ताकि उस जगह कपड़े दोबारा न फटें। जूते वे स्वयं गांठ लेते और सिरहाने तकिये की जगह ईंट रखते। 

जब उनका यह हाल था, तब बच्चों की क्या बात? वे भी फटे-हाल रहते। उनके हमजोली बालक अपने नये-नये कपड़े दिखाकर उन्हें चिढ़ाया करते।

एक बार उनके एक पुत्र अब्दुल रहमान से न रहा गया और रो-रोकर उसने नये कपड़े सिलवाने के लिए अपने पिता से बहुत मिन्नतें कीं। इससे खलीफा का हृदय पसीजा और उन्होंने अपने कोषाध्यक्ष से अपने वेतन से पेशगी के रूप में दो रुपये देने के लिए कहा। किन्तु कोषाध्यक्ष उनसे भी बढ़कर था।

उसने देने से इनकार कर दिया, कहा, “हुजूर! मुआफी चाहता हूँ! खुदा-ना-ख्वास्ता आप इंतकाल फरमा गए, तो यह पेशगी किस खाते में डालूँगा ?

मौत का कोई भरोसा नहीं, उसे आते देर नहीं लगती। मैं नहीं चाहता कि आप इस दुनिया से कर्जदार होकर जाएँ।”

बात हजरत को जँच गई और उन्होंने कोषाध्यक्ष की दूरदेशी की तारीफ की और बच्चे को गले लगाकर अगले माह कपड़े सिलवा देने का आश्वासन दिया।