नैतिक कहानी "ना जाने किस भेष में"
साईंबाबा (शिरडी) पहुँचे हुए महात्मा हो गए हैं। उपासनी महाराज उनके शिष्य थे। साईंबाबा ने ही उन्हें आत्म-साक्षात्कार प्रदान किया था । उनसे उन्हें यह उपदेश मिला था कि गुरु और ईश्वर दोनों अभिन्न हैं। गुरु में श्रद्धा और विश्वास रहे, तो ईश्वर की कृपा और भक्ति प्राप्त हो जाती है।
एक बार नित्य की नाईं जब उपासनी महाराज मस्जिद की ओर, जिसे साईंबाबा 'द्वारकामाई' कहते थे, भोजन का थाल लेकर जा रहे थे, तो रास्ते में उन्हें एक काला कुत्ता दिखाई दिया। वह ललचाई नजरों से थाल की ओर देखने लगा।
उपासनी महाराज ने सोचा-पहले गुरुदेव को भोजन दे आऊँ, बाद में इस कुत्ते को दूँगा और वे आगे बढ़ गए।
बाबा ने उन्हें देखा, तो बोले, "अरे, इतनी दूर धूप में क्यों आए, मैं तो स्वयं रास्ते में आया था। तुमने मुझे उसी वक्त भोजन क्यों नहीं दिया, तुमने बाद में देने की क्यों सोची?" और तब तक उपासनी महाराज को कुत्ते का स्मरण हो आया। बाबा बोले, "कुत्ते का वेश मैंने ही तो धारण किया था।
तुम भूल गए कि प्राणीमात्र में आत्मानुभूति ही परमात्मा की प्राप्ति का साधन है।"
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