ज्ञानी जगत् में रहत, लिप्तमान होत नाहिं



एक बार सारस्वत प्रदेश में घोर दुर्भिक्ष पड़ा। लोग पेट की आग बुझाने अपनी जन्मभूमि को छोड़ अन्यत्र जाकर बसने लगे। पास ही सप्तर्षियों का आश्रम था। वे भी आश्रम छोड़ने के लिए विवश हुए। कई दिनों की यात्रा के पश्चात् वे विदर्भ पहुँचे। राजा वृषादर्भि को जब पता चला कि ब्रह्मज्योति की अखंड साधना में जीवन-यापन करने वाले सप्तर्षियों का राजधानी में आगमन हुआ है, तो उसने उन लोगों से महल में निवास करने की प्रार्थना की, किन्तु उन्होंने विनम्र स्वर में कहा, “राजन्! हम तो वनवासी ठहरे ! गृहस्थ जीवन से हम दूर रहते हैं। शास्त्रों में वर्जित होने के कारण हम आपका दान ग्रहण करने में असमर्थ हैं ।"

विदर्भराज द्वारा काफी अनुनय-विनय करने के बावजूद जब उन्होंने प्रार्थना स्वीकार न की, तो उसे क्रोध आ गया और वह उनका अपमान करने के बारे में सोचने लगा। एक मन्त्री ने राजा को सलाह दी, “महाराज ! आप इन ऋषियों के मार्ग में गूलर के फलों में सुवर्ण भरकर बिखेर दें। कन्द-मूल खाकर जीवनयापन करनेवाले ये ऋषि निश्चय ही इन फलों को ग्रहण करेंगे। इससे उनके द्वारा संचित पुण्य का ह्रास हो जाएगा।"

विदर्भराज ने वैसा ही किया । महर्षि अत्रि को जब फल दिखायी दिया, तो उन्होंने उसे उठाया, किन्तु भारी लगने पर वे वसिष्ठ मुनि से बोले, “इसमे तो सुवर्ण भरा दिखाई देता है। मालूम होता है, हमारी परीक्षा ली जा रही है।" ज्योंही उन्होंने वह फल फेंका, उसमें से निकला सुवर्ण चमकने लगा। वे लोग उस ओर ध्यान न देते हुए आगे बढ़ गए।

अब तो विदर्भराज और भी क्रोधित हो गया। वह उन्हें तंग करने की दूसरी युक्ति सोचने लगा। आगे चलने पर सप्तर्षियों को एक युवा परिव्राजक दिखाई दिया। उसने उन्हें प्रणाम करके कहा, “देव! क्या आप मेरी कुछ शंकाओं का समाधान करेंगे? कृपया बताइए कि सर्वश्रेष्ठ धर्म क्या है?"

महर्षि कश्यप ने उत्तर दिया, “सौम्य!” इस पृथ्वी पर दान, दया और कर्म-ये तीन सर्वश्रेष्ठ धर्म हैं और इनका आचरण करने वालों को सांसारिक यातनाएँ नहीं सतातीं ।

परिव्राजक ने पुनः पूछा, “ऋषिवृंद ! क्या वेदाध्ययन करने वालों के लिए भी इनका पालन करना आवश्यक है?" महर्षि अंगिरा ने उत्तर दिया,

“द्विजश्रेष्ठ केवल वेदाध्ययन में लीन रहने से कुछ नहीं होता। मुक्ति उसे ही प्राप्त होती है, जो तदनुरूप आचरण करता है।" संतुष्ट हो परिव्राजक ने कहा, "महर्षि! मुझे अब धर्म का सार बताएँ।” महर्षि वसिष्ठ बोले, "सारे धर्मों का सार यह है कि जो बात स्वयं को अच्छी न लगे, उसका आचरण दूसरों के लिए भी नहीं करना चाहिए। जो व्यक्ति परायी स्त्री को अपनी माता के समान पूजनीय मानता है, परधन को मिट्टी के समान तुच्छ और संसार के सभी जीवों को अपने समान देखता है, वह वास्तव में सभी धर्मों की शिक्षा का आचरण करता है।"

यह सुन परिव्राजक संतुष्ट हो गया। इतने में सप्तर्षियों का ध्यान पास के सरोवर के मृणालों की ओर गया। वे उन्हें निकालने के लिए बढ़े, तो वहाँ एक राक्षसी प्रकट हुई और वह उन्हें तंग करने लगी। इस राक्षसी को विदर्भराज ने भेजा था। परिव्राजक कुछ देर तक तो देखता रहा, बाद में उसने ज्योंही उस ओर अपना दंड उठाया, राक्षसी का सिर धड़ से अलग हो गया। जब सप्तर्षियों ने परिव्राजक की ओर देखा, तो वहाँ उन्हें देवराज इंद्र दिखाई दिए।

देवेन्द्र ने उनसे कहा, “ऋषिवृंद! आप धन्य हैं। आपने सचमुच लोभ, क्रोध, मोह एवं दुर्भावना पर नियंत्रण पाया है। मैं आपको वरदान देता हूँ कि आपको भूख, प्यास और सांसारिक पीड़ाएँ कभी नहीं सताएँगी और आपके स्मरण मात्र से मानव-जाति अनंतकाल तक प्रेरणा ग्रहण करती रहेगी।”