अनासक्ताः सुखिनो भवंति
सम्राट् पुष्यमित्र का अश्वमेध यज्ञ जब सानंद संपन्न हुआ, तो उन्होंने दूसरी रात अतिथियों के मनोरंजन हेतु नृत्योत्सव का आयोजन किया। महर्षि पतंजलि जब इस उत्सव में सम्मिलित हुए, तो उनके शिष्य चैत्र को बुरा लगा, किन्तु उस समय वह चुप रहा। लेकिन एक दिन जब महर्षि योगदर्शन पढ़ा रहे थे, तो उसने उपालंभपूर्वक पूछा, “गुरुवर! क्या नृत्य-गीत के रस-रंग चित्तवृत्तियों के निरोध में सहायक होते हैं?"
महर्षि ने शिष्य के प्रश्न का अभिप्राय जान लिया। उन्होंने कहा, "सौम्य ! आत्मा का स्वरूप रसमय है। रस में उसे आनंद मिलता है और तृप्ति भी । वह रस विकृत न होने पाए और अपने शुद्ध स्वरूप में बना रहे, इस प्रकार की सावधानी बरतने का नाम 'संयम' है। विकार की आशंका से रस का परित्याग कर देना उचित नहीं । क्यों कोई कृषक पशुओं द्वारा खेत चर लिये जाने के भय से कृषि कर्म छोड़ देता है? यह संयम नहीं, पलायन हुआ। जीवन को रस रहित बनाकर किया गया संयम-प्रयत्न ऐसा ही है, जैसे जल को तरलता और अग्नि को ऊष्मा से वंचित करना । इसलिए भद्र! भ्रम मत करो, रस को नहीं, उसकी विकृति को ही हेय मानो ।”
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