नैतिक कहानी "श्रम का पुरस्कार"



एक बहुरूपिए ने राजा भोज के दरबार में आकर राजा से पाँच रुपये की याचना की। राजा ने कहा कि वे कलाकार को पुरस्कार दे सकते हैं, दान नहीं। बहुरूपिए ने स्वाँग-प्रदर्शन के लिए तीन दिन की मोहलत माँगी।

अगले दिन राजधानी के बाहर टीले पर एक जटा-जूटधारी तपस्वी समाधि-मुद्रा में शांत बैठा दिखाई दिया। उत्सुकतावश चरवाहे वहाँ जुट गए। “महाराज, आप कहाँ से पधारे?" उनमें से एक ने प्रश्न किया। किन्तु महाराज के कानों में ये शब्द गए नहीं, वे मौन ही रहे। न तो उसके नेत्र खुले और न उनका शरीर रंचमात्र हिला ।

"बाबा, क्या कुछ भिक्षा ग्रहण करोगे?” किन्तु इसका भी उन्हें उत्तर न मिला।

नगर लौटे चरवाहों से उस महान् तपस्वी का वर्णन सुनकर सभ्य नागरिकों, सेठों और दरबारियों की सवारियाँ नगर के बाहर की ओर दौड़ पड़ीं। फल, फूल, मेवा-मिष्ठान्न के अंबार लग गए, किन्तु साधु ने आँखें न खोलीं।

दूसरे दिन प्रधानमंत्री ने रुपये और रत्नों की राशियाँ चरणों पर रखते हुए महात्मा से केवल एक बार नेत्र खोलकर कृतार्थ करने की प्रार्थना की, किन्तु इसका भी उस साधु पर कोई असर नहीं हुआ।

तीसरे दिन राजा भोज स्वयं वहाँ आ पहुँचे। लाखों अशर्फियाँ चरणों पर रख वे साधु से आशीर्वाद की प्रार्थना करते रहे, किन्तु तपस्वी मौन ही थे। चौथे दिन बहुरूपिये ने दरबार में उपस्थित हो अपने सफल स्वाँग के लिए पाँच रुपये पुरस्कार की माँग की।

“मूर्ख! सारे राज्य का वैभव तेरे चरणों पर रखा था, तब तो तूने एक बार भी आँख खोलकर देखा नहीं और अब मात्र पाँच रुपये की याचना कर रहा है!” राजा ने कहा ।

“उस समय सारे वैभव तुच्छ थे, महाराज!" बहुरूपिये ने उत्तर दिया, “तब मुझे वेश की लाज रखनी थी, लेकिन अब पेट की आग अपने श्रम का पुरस्कार चाहती है।"