नैतिक कहानी "नियति की गति"
एक दिन सुप्रसिद्ध वेदांती केरलवासी नारायण भ्रांतनू भिक्षान्न लेकर श्मशान में गए और तीन पत्थर एकत्र कर उन्होंने चूल्हा बनाया। फिर उस पर चावल की हाँडी चढ़ाकर वे भजन में मग्न हो गए। अचानक भयंकर गर्जना सुनाई दी और थोड़ी ही देर में आवाज आई, "कौन हो तुम, हट जाओ यहाँ से। यहाँ अब श्मशान-काली के अनुचर नृत्य करेंगे।" भ्रांतन् ने लापरवाही से उत्तर दिया, “आपको रोका किसने है? इतनी बड़ी जगह में आप कहीं भी नृत्य कर सकते हैं।” आवाज आई, "हम मनुष्यों के सामने नृत्य नहीं करते। तुम यहाँ से चले जाओ।” भ्रांतनू बोले, “जहाँ कोई मनुष्य न हो, वहाँ चल दो।” आवाज आई, "हम यहीं नृत्य करते हैं।” “तो आज मत करो, कल करो।" भ्रांतनू का उत्तर था। क्रुद्ध आवाज आई, “इसी स्थान पर प्रतिदिन नृत्य करने का हमारा नियम है।” उत्तर मिला, “मेरा भी नियम है कि जहाँ इच्छा हो, खाओ और सो जाओ।" अब तो भूतगण बेहद नाराज हो गए और उन्होंने भ्रांतनू को तंग करना शुरू किया, किन्तु वे जरा भी विचलित न हुए।
तब श्मशान-काली प्रकट होकर बोली, “महात्मन्, हम तुमसे हार गए हैं। हम तो यहाँ से जा रहे हैं, लेकिन हमारा यह भी नियम है कि जो मनुष्य हमारे सामने आता है, उसे या तो शाप देते हैं या वरदान।” इस पर भ्रांतनू हँस पड़े और बोले, "देखिए, मुझे न तो आपके शाप का भय है और न मैं वरदान का इच्छुक ही हूँ। लेकिन यदि आप यह बता सकें कि मेरी मृत्यु कब होगी, तो आपकी बड़ी कृपा होगी।" काली ने उन्हें नियत तिथि और समय बता दिया। तब भ्रांतनू बोले, “यदि आप वरदान देना चाहती हैं, तो कृपया मुझे इस तिथि से एक दिन पहले या बाद में मार दीजिए।” काली ने उत्तर दिया, "यह मेरे बस की बात नहीं है। मनुष्य की मृत्यु निश्चित तिथि को ही होती है।" भ्रांतनू ने हँसकर कहा, "यह तो मैं जानता ही था कि नियति की गति को मनुष्य के पुरुषार्थ के अलावा और कोई नहीं बदल सकता। आपने व्यर्थ ही मेरा समय नष्ट कर दिया!"
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