गौरवं प्राप्यते दानात्
एक बार गुरु गोरखनाथजी ने सोचा कि उन्हें साधना द्वारा जो फल प्राप्त हुआ है, क्यों न उसे किसी योग्य व्यक्ति को दान में दे दिया जाए। और वे योग्य व्यक्ति की तलाश करने लगे। जब वे वाराणसी पहुँचे, तो उन्हें एक संन्यासी दिखाई दिया, जो अपने दंड को गंगा में प्रवाहित कर रहा था। गोरखनाथजी ने उससे कहा, “महात्मन्, मैं आप जैसे त्यागी पुरुष की ही तलाश कर रहा था। मेरे अहोभाग्य कि मुझे आपके दर्शन हो गए। मैंने अपनी साधना द्वारा जो सिद्धियाँ प्राप्त की हैं, वे मुझे अपने पथ से विमुख न करें, इसलिए मेरी इच्छा है कि मैं उन्हें आपको अर्पित करूँ । कृपया मेरी इस भेंट को स्वीकार करें।”
संन्यासी ने अपनी अंजलि सामने की और कहा, “मैं आपकी भेंट स्वीकार कर रहा हूँ।” और फिर उन्होंने अंजलि को नदी के प्रवाह में झोंक दिया। यह देख गोरखनाथजी गद्गद होकर बोले, “महात्मन्! आप सचमुच महान् हैं। जो दान प्राप्त अलभ्य वस्तु को भी जल में अर्पण करे, उससे बढ़कर त्यागी और गौरवशाली कौन हो सकता है?"
0 Comments