प्रभुता कूँ सब चहत हैं
सिक्ख गुरु हरिकिशनजी जब चोला छोड़ने लगे, तो शिष्यों ने सोचा कि उन्होंने गुरु की जो इतनी सेवा की है, तो क्या वे गद्दी के अधिकारी नहीं हो सकते ? हरिकिशनजी के चोला छोड़ने पर रात को वे सब शिष्य, जिनकी संख्या 21 थी, गद्दी पर बैठकर भजन करने लगे। गुरु तेगबहादुर भी एक कोने में बैठकर चुपचाप भजन करने लगे।
मक्खनशाह नामक एक सौदागर था। उसका जहाज जब तूफान में फँस गया, तो उसने मनौती मानी कि यदि गुरु जहाज को पार लगा देंगे, तो वह उन्हें पाँच सौ मोहरें भेंट करेगा। संयोग से जहाज डूबने से बच गया और मक्खनशाह को उसका सारा माल ज्यों-का-त्यों मिल गया। मनौती पूरी करने के इरादे से जब वह गद्दी के पास आया, तो उसे वहाँ 22 गुरु दिखाई दिए।
उसने सोचा कि उनमें से गुरु को पहचाना नहीं जा सकता, इसलिए उसने सबके सामने पाँच-पाँच मोहरें रख दीं।
सबने मोहरों को चुपचाप स्वीकार किया और उसे आशीर्वाद दिया, मगर तेगबहादुर ने कहा, “तूने तो पाँच सौ मोहरों का वादा किया था न? बाकी मोहरें कहाँ गईं? क्या तू समझता है कि तेरा जहाज इतनी आसानी से पानी से निकला है? जरा मेरे कंधों की ओर तो देख कि वहाँ कीलों के कितने जख्म हुए हैं।"
मक्खनशाह ने देखा तो उसे उनके कंधों पर जहाँ-तहाँ जख्म दिखाई दिए। वह जान गया कि यही असली गुरु हैं और वह चिल्ला उठा, “गुरु लाधो रे! गुरु लाधो रे!” (गुरु मिल गया! गुरु मिल गया!) उन 21 शिष्यों को भी जब यह सारी बात मालूम हुई, तो उन्होंने चुपचाप गद्दी खाली कर दी और गुरु तेगबहादुर के चरणों पर गिरकर गुरु के रूप में उन्हें स्वीकार किया।
0 Comments