पषाण गढ़ि के मूरति कीनी



संत गाडगे महाराज जब महाराष्ट्र के एक ग्राम में पहुँचे, तो उन्हें वहाँ नदी के किनारे सैकड़ों शिवालय दिखाई दिए और यह देख उन्हें मन-ही-मन हँसी आ गई।

रात्रि को एक मंदिर में उनके कीर्तन का आयोजन किया गया, किन्तु उन्हें यह देख दुःख हुआ कि श्रोताओं की उपस्थिति बहुत कम है। दूसरे दिन सुबह जब लोग उनसे मिलने आए, तो उन्होंने कहा, “यहाँ जितने मंदिर हैं, उतने भी लोग कल के कीर्तन में नहीं आए थे।" यह सुन कुछ लोगों को हँसी आ गई। तब वे बोले, “हँसते क्यों हो, बाबा! क्या तुम्हें नदी के किनारे जहाँ-तहाँ मंदिर-ही-मंदिर नहीं दिखाई देते? मगर क्या उनकी देखभाल ठीक तरह से हो रही है? कहीं नदी का पता नहीं है, तो कहीं भगवान् के दर्शन ही दुर्लभ हैं। ऐसे मंदिर बाँधना न बाँधने जैसा ही है।"

इतने में एक व्यक्ति ने जवाब दिया, “यह सब धर्म श्रद्धा मिटने का परिणाम है।" तब बाबा बोले, “ठीक-ठीक क्यों नहीं कहता कि भावना नहीं रही? संस्कृत में काहे को बोलता है? इन मंदिरों का निर्माण करने वालों को सपना ही आया होता कि मंदिरों की यह हालत होने वाली है, तो शायद वे मंदिर न बाँधते। वह देखो, सामने एक कुत्ता मंदिर में जा रहा है, क्या वह उसे अपवित्र नहीं करेगा?” जब एक व्यक्ति ने कुत्ते पर पत्थर फेंकना चाहा, तो बाबा ने उससे कहा, “किसको मार रहे हो? कुत्ते को ? गुस्सा आ ही रहा है, तो कुत्ते पर क्यों निकाल रहे हो, मंदिर बनाने वालों पर क्यों नहीं उतारते, जिन्होंने यहाँ इतने ढेर सारे मंदिर बना रखे हैं। अच्छा तो यही होता कि एक ही मंदिर बाँधते और मंदिर का और देवता का ठीक से इन्तजाम करते। मगर ऐसा हो रहा है क्या? तुकोबाराया ने ठीक ही कहा है-'तीर्थी धोंडा पाणीगा, देव रोकडा सज्जनी' (नदी के किनारे का पत्थर भी सज्जन लोगों के लिए देवता बन जाता है) !”