जठरे धारयाम्यहम्



महामुनि व्यास को यमुना नदी के उस पार जाना था और वे नाव की प्रतीक्षा कर रहे थे कि इतने में वहाँ गोपियाँ आ पहुँचीं। काफी समय तक प्रतीक्षा करने के बाद भी जब कोई नाव नहीं आई, तो निराश हो गोपियों ने व्यासदेव से पूछा, “महाराज, नाव तो कोई आ नहीं रही है। अब क्या किया जाए?” व्यासदेव ने कहा, “चिंता न करो, मैं तुम लोगों को नदी पार करा दूँगा। मगर नाव की प्रतीक्षा करते-करते मैं थक गया हूँ और मुझे भूख लगी है। क्या तुम लोग कुछ दे सकती हो?” गोपियों के पास ताजा दूध, मलाई, मक्खन था, जिसमें से कुछ उन्होंने महामुनि को दिया। गोपियों ने जब देखा कि व्यासदेव ने दूध-मक्खन तो खा लिया, लेकिन पार करने के बारे में वे कुछ भी बोल नहीं रहे हैं, तब वे उनसे बोलीं, “महाराज, नदी पार करने का क्या हुआ?"

व्यासदेव थोड़ा आगे गए और हाथ जोड़ उन्होंने नदी से प्रार्थना की, “यमुने! यदि आज मैंने कुछ खाया न हो, तो इसके बल पर तुम जल को दो भागों में विभक्त करो, जिससे हम लोग उस पार जा सकें।” ज्योंही उन्होंने ऐसा कहा, नदी दो भागों में विभाजित हो गई और बीच में सूखा किनारा बिछ गया। यह देख गोपियाँ चकित हो गईं और मन-ही-मन सोचने लगीं कि थोड़ी देर पहले ही तो इन्होंने हमसे दूध-मक्खन माँगकर खाया था और अब कह रहे हैं कि कुछ नहीं खाया। यमुना को भी उनके कथन पर विश्वास हो गया ! आखिर उन्होंने व्यासदेव से इसका रहस्य पूछ ही लिया।

महामुनि ने कहा, “आप लोगों ने मुझे दूध, मक्खन, मलाई अवश्य दी थी, किन्तु उसे मैंने नहीं, मेरे हृदय में अवस्थित भगवान् ने खाया था।” मनुष्य कर्म तो करता है, पर वह इस कर्म को ब्रह्मार्पित बुद्धि से नहीं करता। यदि वह ऐसा करे, तो कर्मों का बंधन नहीं रहेगा और कर्म करके भी वह कर्मरहित रहेगा। इसके लिए दृढ़ विश्वास की बड़ी आवश्यकता है। आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए, साधना भी आवश्यक है। यदि दृढ़ विश्वास हो, तो थोड़ी साधना से ही काम चल सकता है।