क्रिया सिद्धिः सत्त्वे भवति



एक बार संत रामदासजी के पास एक मुमुक्षु आया और उसने पूछा, "प्रभो! मैं कौन-सी साधना करूँ?"

रामदासजी ने उत्तर दिया, “कोई भी कार्य करने से पहले यदि तुम यह निश्चय करोगे कि वह भगवान् के लिए किया जा रहा है तो तुम्हारे लिए यही साधना उत्तम होगी। तुम यदि तय कर लो कि तुम्हें दौड़ना है, तो दौड़ो, किन्तु दौड़ने से पहले यह निश्चय कर लो कि तुम भगवान् के लिए दौड़ रहे हो, तब यही तुम्हारी साधना होगी।"

“क्या बैठकर करने की कोई साधना नहीं है?" शिष्य ने पुनः पूछा। 

"है क्यों नहीं?" रामदासजी ने कहा, "बैठो और निश्चय कर लो कि तुम भगवान् के लिए बैठे हो ।'

“क्या जप नहीं किया जा सकता?" शिष्य का अगला प्रश्न था।

“हाँ, जप भी कर सकते हो, लेकिन उस समय भी तुम भगवान् के लिए कर रहे हो, यह ध्यान में रखना । "

"अर्थात् इसमें भाव का महत्त्व है, क्रिया का नहीं!” शिष्य ने शंका प्रकट की।

रामदासजी ने कहा, “क्रिया का भी महत्त्व है। क्रिया से भाव और भाव ही से तो क्रिया होती है, किन्तु उसके लिए दृष्टि लक्ष्य की ओर होनी चाहिए, तब तुम जो भी करोगे, वही साधना होगी। लक्ष्य के लिए क्रिया और भाव की आवश्यकता है। इनके योग का नाम साधना है और इन्हीं से सिद्धि प्राप्त होती है। यदि लक्ष्य भगवान् की ओर रहे, तो निश्चय ही उनकी