मित्रता 
Mitrata


भर्तृहरि ने कहा है कि जो सुख तथा दुःख में साथ दे तथा समान क्रियावाला हो, उसे मित्र कहते हैं। वस्तुतः मित्रता दो हदयों को बाँधनेवाली प्रेम की डोर है।

मनुष्य जीवन के पथ पर एकाकी चलने में कठिनाई का अनुभव करता है, उसे ऐसे व्यक्ति की खोज रहती है, जो उसके हर्ष और विषाद में साथ देनेवाला हो, जिसके समक्ष वह मनप्राणों की कोई लिपि गुप्त न रहने दे, जिसपर अपने विश्वास की दीवार खड़ी कर सके। अतः मित्रता मन की वह प्यास है, जिसके लिए मनुष्य तड़पता रहता है और वह बड़ा भाग्यवान है जिसकी यह प्यास बुझ जाती है। इसलिए मित्रता का बड़ा ही गुणगान किया गया है। कविवर दिनकर ने कहा है


मित्रता बड़ा अनमोल रतन

कब इसे तोल सकता है धन? 


बाइबिल का कहना है, 'एक विश्वासी मित्र जीवन के लिए महौषध है' (A faithful friend is the medicine of life.)। डिजराइली का कहना है कि एक सच्चा मित्र दैवी उपहार है। सैम्युएल जॉनसन का कहना है कि मित्रता विचित्र स्वर्गीय वरदान है, भद्र मानस का आनन्द और अभिमान है-यह विभूति केवल मनुष्यों और देवताओं को ही मिली है, अधोजगत् के प्राणी तो इससे वंचित ही रहे हैं। 'मित्रता' नामक उनके संबोधन-गीत की पंक्तियाँ है-


Friendship peculiar boon of Heaven,

The noble mind's delight and pride.

To men and angels only given,

To all the lower world denied. 


किन्तु, यदि मित्रता असली हो तब तो वह स्वर्गीय प्रकाश है, यदि नकली हो तो वह नारकीय अंधकार। सच्ची मित्रता फास्फोरस की तरह ज्योति फैलाकर मित्र के संकट के अंधकार को क्षणभर में दूर कर देती है। सज्जनों की मित्रता की छाया दोपहर के बाद की छाया की तरह बढ़ती जाती है। इसके विपरीत, दुष्टों की मित्रता सुबह की छाया की तरह पहले तो काफी बड़ी लगती है, लेकिन बीच दोपहर में ही छोटी हो जाती है। अतः यह आवश्यक है कि हम मित्र के चयन में सावधान रहें।

सच्चे मित्र सचमुच दुष्पाप्य होते हैं। वह मनुष्य बड़ा भाग्यशाली है, जिसे कोई-न-कोई सच्चा मित्र मिल गया हो। सच्चे मित्र की पहचान है-जो विपत्ति, शोक, संताप में भी हमारा साथ न छोड़े। वही सच्चा मित्र है जो सदा मित्र की भलाई चाहता है, उसके लिए अपने प्राणों की आहुति देने के लिए भी तैयार रहता है। वह अपने मित्र से केवल धन ऐंठने की ताक में नहीं रहता। वह बराबर अपने मित्र को बुरे मार्गों पर जाने से रोकता है तथा उसे सुपथ पर चलने का प्रयास करता है। 'रामचरितमानस' में गोस्वामीजी ने इसे इस प्रकार कहा है-


जे न मित्र दुख होहिं दुखारी । तिन्हहि बिलोकत पातक भारी ।। 

निज दुख गिरिसम रज करि जाना । मित्रक दुख रज मेरु समाना ।। 

कुपथ निवारि सुपंथ चलावा । गुन प्रकटै अवगुनन्हि दुरावा ।। 

देत लेत मन संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई।।

विपति काल कर सतगुन नेहा । श्रुति कह संत मित्र गुन एहा।। 


ठीक इसके विपरीत, कपटी मित्र बड़े घातक हैं। वे मित्रों के पास तभी तक मैंडराते रहते हैं जब तक उनके पास लुटाने के लिए पैसे होते हैं; किन्तु दीनता और संकट में साथ छोड़ देते हैं। वे मीठे-धीमे जहर हैं, जो कभी मित्र की जान तक लेते हैं। शत्रुओं से रक्षा पा लेना आसान है; किन्तु ऐसे कपटी कालनेमि-मित्रों से तो बहुत सावधान ही उबर सकते हैं। ऐसे मित्र सागर की तह में छिपी हुई चट्टान हैं, जो कभी जीवन के जलयान को जलमग्न कर दे सकते हैं। गोस्वामीजी ने ऐसे कपटी मित्र के बारे में कहा है-


आगे कह मृदु बचन बनाई। पाछे अनहित मन कुटिलाई ।। 

जाकर चित अहि गति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई।।

सेवक सठ नृप कृपन कुनारी । कपटी मित्र सूल सम चारी ।। 


इसीलिए 'हितोपदेश' में कहा गया है कि ऐसे मित्रों को उस घड़े के समान छोड़ देना चाहिए जिसके ऊपर दूध हो और नीचे विष भरा हो-


परोक्षे कार्यहन्तार प्रत्यक्षे प्रियवादिनम्।

वर्जयेत् तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम् ।। 


इस प्रकार, हरि-सोने की पहचान उतनी कठिन नहीं है, जितनी किसी मनुष्य की। इसलिए बहुत परीक्षा कर, सोच-समझकर किसी को मित्र बनाना चाहिए। वे सचमुच ईश्वर के बड़े प्यारे हैं, जिन्हें कोई सच्चा मित्र मिल जाता है। राम-सुग्रीव और कृष्ण-सुदामा की मित्रता सम्पन्न से साधारण पुरुष की मित्रता थी, फिर भी उसमें महान की महत्ता थी। समान पुरुषों की मित्रता हो जाय तो अच्छा, किन्तु यदि दो असमान स्थिति के सहदय लोगों में वह मित्रता हो, तो क्या कहना !